________________
नेमिनिर्वाण में वर्णनवैचित्र्य
१७७ इस प्रकार अपनी-अपनी उदारपलियों के साथ यादवों की रमणीय जलक्रीड़ा को देखकर ही मानो सूर्य भी खिन्न होकर (विशाल) आकाश को पार कर अपनी किरणों में दिन की शोभा को समेट कर समुद्र के किनारे चला गया । मदिरा पान
नेमि निर्वाण के दशवें सर्ग में मदिरा पान का बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है ।
लड़खड़ाती हुई वाणी वाले, गिरते हुये वस्त्रों वाले, भूमि पर गिरने के कारण धूसरित परवश तरुण मधुपान की लोलुपता के कारण बाल्यावस्था का अनुभव करने लगे।
अत्यधिक पीये गये मदिरा-जल से चंचल नेत्रों वाली स्त्रियों के नेत्राञ्चल सन्तुष्ट हुये कामदेव के लाल-लाल कान्ति वाले नवीन पल्लवों की तरह शोभावान होने लगे।
चकोर के समान नेत्रों वाली बालायें सूर्यकान्त मणियों के प्यालों के मध्य में प्रतिबिम्बित प्रियतमों के साथ मदिरा को अत्यन्त आनन्द के साथ पीने लगी । मदिरा जल को पीता हुआ भी वह कामुक व्यक्ति वितृष्णा को प्राप्त नहीं हुआ किन्तु मदिरा की शक्ति से कांपते हुए हाथ से प्याला स्वयं ही गिर गया ।
कानों के आभूषण रूप कमलों के कारण समागत भौंरों के द्वारा सरस गीत गाने पर सुन्दर नेत्रों वाली स्त्रियों की अत्यन्त घूमते हुये नेत्रों वाली भौहें मद के कारण नाचने लगी। "प्रियतम परकीय वनिता के साथ मधु पी रहा है ।" ऐसा कहे जाने पर लाल-लाल नेत्रों वाली प्रियतमा तुरन्त गद्-गद् वाणी से कुपित हो कर मद की शोभा को प्राप्त हुई । एक दूसरे के मुख की मदिरा को ग्रहण करने के लिये तत्क्षण चुम्बन के भावों से युक्त फैलायी हुई भुजाओं से मिले हुये प्रिय-युगलों ने रति के लिए मन बनाया ।
अव सलिलविलासं यादवानमुदारैः, सह निजनिजदारैस्तत्रवीक्ष्येव रम्यम् । दिनपतिरपि खिन्नःखं व्यतीत्यातिमात्र, करकलितदिन श्रीः सागरान्तं जगाम ।।
नेमिनिर्वण, ८/८० २. असमग्रवाग्भिरवधूतगलद्वसनैर्धरापतन चूसरितैः । मधुपानलौल्यवशतो विवशैरनुभूयते स्म तरुणैः शिशुता ।।
अतिमात्रपीतपदिरासलिलैरुपतर्पितस्य मदनस्य मुहुः । नवपल्लवा इव सताम्ररुचो नयनंचलाश्चलदृशां विबभुः ।। प्रतिबिम्बितैस्तपन कान्तदृषच्चपकोदरेष्वय चकोरदृशः । मधु वल्लभैः सह रसात्सहसा वदनैर्वितामिव गतैरपिबन् ।।
न वितृष्णतामुपययौ मदिरासलिलं पिबन्नपि स कामिजनः । ।
मदशक्तिकम्पितकरादमुतः स्वयमेव किंतु चषकं व्यगलत् ।। श्रवणावतंसकमलातिथिभिर्मधुपैः कृते सरसगतरवे । घनघूर्णमाननयनान्तभुवा सुदृशां भुवा मदवशाननृते ।। मधुपीयतेऽन्यवनिताभिधया हृदयेश्वरेण गदिता दयिता । अरुणेक्षणा सपदि गद्गदवाक्कुपिता मदनियमवापतमाम् ।। इतरेतरं मुखसुराग्रहणक्षणचुम्बनोपचितभावभरैः । सपदि प्रसारितभुजामिलितैमिथुनरतन्यत रताय मनः ।। - वहीं,१०/३,८,१२-१६