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श्रीमद्वाग्भटविरचित नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन छल से चारों दिशाओं के दिग्पालों ने उस नगरी को अपना निवास स्थान बनाया था । पुत्र-जन्मोत्सव
किसी महापुरुष का जन्म लोक कल्याण के लिये होता है । अतएव उसके जन्म से जितनी प्रसन्नता माता-पिता आदि पारिवारिक जनों को होती है उससे कहीं अधिक नगर निवासियों एवम अन्य जन समुदाय के लिये भी । महापुरुष की उत्पत्ति प्रकृति में भी परिवर्तन कर देता है। उसके जन्म के साथ ही शीतल मन्द पवन बहने लगती है । महाकवि वाग्भट ने नेमिनाथ के जन्म का बड़ा ही आलादक वर्णन प्रस्तुत किया है।
जन्म से पूर्व राजा समद्रविजय के यहाँ नवमास तक रत्नों की वर्षा हुई। श्रावण का महीना आ जाने पर शुक्ल पक्ष षष्ठी के दिन रानी शिवा देवी ने सम्पूर्ण लोकों को आनन्दित करने वाले पुत्र को जन्म दिया। देवताओं के देदीप्यमान महोत्सव वाले उसके जन्मदिन में राग-रहितता (परागशून्यता) को पाकर वायु भी (धीरे-धीरे) मन्दता को प्राप्त हो गई । जन्म के समय में पारितोषिक मांगने वाले प्राणियों का समूह तथा शंख की ध्वनि से संसार व्याप्त हो गया। अभिषेक करने के लिये तीनों लोकों के अधिपति उस बालक को देखने आये। राजा समुद्रविजय के यहाँ जन्म भवन में सात दीपक जलाये गये, ऐसा मालूम पडता था कि उसकी सेवा के लिए अद्भुत कान्ति वाले महर्षि ही आये हों। २ जलक्रीडाः ____ नेमि निर्वाण के आठवें सर्ग में पूर्णरूप से जलक्रीड़ा का वर्णन किया गया है, जिसमें से मुख्य वर्णन इस प्रकार है
__ “साक्षात् कामिनी प्रियतमाओं के साथ यदुवंशी राजा थककर जलक्रीड़ा करने के लिये जलाशय पर चले गये। खिले हुये कमलों रूपी मुखों वाले, पक्षियों के कूजन के वार्तालाप से युक्त जल ने राजा की मित्रता से उचित समय आनन्द प्राप्त किया। निर्मल जल में स्त्रियों के तरंगों के कारण चंचल प्रतिबिम्बों से मानों जल देवतायें ही क्रीड़ा करती हुई विचरण करने लगी । सुन्दर भौंहों वाली स्त्रियों ने भी भयानक प्राणियों वाले जल में भय और क्रोध के साथ प्रवेश किया। तरंगरुपी हाथों से रानियों का आलिंगन करके नदी के प्राणों की तरह पक्षी अचानक उड़ गये।
१. यमैकवृत्तेधनवाहनस्य प्रचेतसो यत्र धनेश्वरस्य । व्याजेन जाने जयिनो जनस्य वास्तव्यतां नित्यमगर्दिगीशाः ।।
- नेमिनिर्वाण,१/५७ वजवनिविरहेण हारिणी तत्र संततमदुर्दिनोदया । रलवृष्टिरजनिष्ट मन्दिरे पार्थिवस्य नवमासवर्तिनी ।। शुक्लपक्षभवषष्ठवासरे साथ मासि नभसि प्रसपति । नन्दनं सकललोकनन्दनं सक्रियेव सुषुवे समीहित्म ।। तस्य जन्म-दिवसे दिवौकसां दूरदीपितमहामहे मुहुः । प्राप्य काममपरागतामयं वायुरेव किल मन्दतां गतः ।। भावनीयभवनेषु संभवन्व्याप विश्वमपि शंखनिस्वनः । जन्तुजातमिव याचितुं तदा पारितोषिकममुष्य जन्मनि ।। विश्वनाथमभिषेक्तुमेष्यतां वीक्षणार्थमिव नाकिनां श्रियः । तुल्यकालमृतवः समारुहाभूरुहेषु धनपुष्पभारिषु ।। तस्य जन्मभवने प्रबोधिताः सप्त मंगलमयस्य दीपकाः । आगता इव दिवो महर्षयः सेवनार्थमभुरभुतप्रभाः ।।
- नेमिनिर्वाण, ४/१२,१३,१५,१७, २०, २३ ३. साक्षादिव स्मराक्षाभिः प्रेयसीभिः समं नृपाः। तेऽथ कर्तुजलक्रीडां जम्मुः श्रान्ता जलाशयम्।।
सहासपुण्डरीकास्यं सालापं पक्षिकूजितैः । नृपमैत्र्या धृतानन्दं स्थाने जलमजायत ।। निर्मले नितरां नीरे नारीणां प्रतिबिम्बतैः । कल्लोललोलैः खेलन्त्यों जलदेव्योचक्रिरे ।। पुरः सरैः पुरोपास्तक्रूरसत्त्वेषु वारिषु । सुभ्रवः सभयोत्कापं शतरैन्तः पदं व्यधुः ।। राजदारांस्तरंाग्रहस्तैरालिंङ्गय विश्रतः । नदस्य सहसोइडीनाः प्राणा इव विहंगमाः ।। - नेमिनिर्वाण, ८/४२-४६