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नेमिनिर्वाण में वर्णनवैचित्र्य
देव मन्दिर
महाकवि वाग्भट ने द्वारावती के देवमन्दिरों का वर्णन करते हुये कहा है कि स्फटिक मणिमय अथवा सुधालिप्त देवालय चन्द्रमा के प्रकाश में लीन हो जाते थे ।
जिस (द्वारावती ) नगरी में रात्रि के समय निर्मल स्फटिक मणियों के बने हुये देवमन्दिर चन्द्रमा की शुभ्र ज्योत्स्ना द्वारा लुप्त कर लिये जाते थे । श्वेत मन्दिर शुभ्रज्योत्स्ना में छिप जाते थे, केवल उनके सुवर्ण-निर्मित पीले पीले कलश ही परिलक्षित होते थे उनसे ऐसा प्रतीत होता था कि मानो आकाश में सुवर्ण कमल विकसित हुये हैं । स्त्री-पुरुषों का वर्णन
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स्त्रीः
कवि वाग्भट ने स्त्री-चित्रण करते हुये कहा है कि जहाँ पर युवतियाँ (स्त्रियाँ) कामदेव की अस्त्रशाला - आयुधयशाला के समान सुशोभित होती थी । यतः स्त्रियाँ अपने कानों में मणि निर्मित कर्णफूल पहने हुये थी । वें चक्रनामक आयुध के समान मालूम होते थे। उनके हार कामदेव के पाशबन्धन के समान और प्रणय कोप से बंक भौंहे धनुष के समान प्रतीत होती थी ।
स्त्रियों की मुखों की सुगन्धि के कारण भ्रमर उनके पास पहुँच जाते थे । वे भौरे उन स्त्रियों की मुस्कान की श्वेत कान्ति से व्याप्त होने पर ऐसे प्रतीत होते थे मानों पुष्पों के पराग के समूह से चित्र-विचित्र हो गये हों ।
“जो उत्तम भौंह रूप युग- जुवारी सहित है (पक्ष में उत्तम भौंहे के युगल से सहित है) चंचल रूप वाहों - घोड़ों से युक्त हैं । ( पक्ष में चंचल नेत्रों को प्राप्त है) और जो कुण्डल रूपी सुन्दर चक्र आयुध विशेष से शोभित है ( पक्ष में चमकते हुये कुण्डलों की चारु परिधि से सहित है) ऐसे स्त्रियों के मुखरूपी रथ पर आरुढ होकर कामदेव जिस द्वारावती नगरी में तीनों लोकों को जीतने वाला बन गया
था ।
पुरुष :
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उस द्वारावती नगरी में रहने वाले पुरुष यमैकवृती थे - अहिंसा आदि यमव्रतों को धारण करने वाले (पक्ष में यमराज की मुख्य वृत्ति को धारण करने वाले थे । वें धनवान् अधिक सवारियों से युक्त थे (पक्ष में इन्द्र थे) प्रचेतस थे - उत्कृष्ट हृदय को धारण करने वाले थे । ( पक्ष में वरुण थे ) एवं धनेश्वर अत्यधिक धनिक थे (पक्ष में कुबेर थे) । इस प्रकार पुरुषों के
१. यत्रेन्दुपादैः सुरमन्दिरेषु लुप्तेषु शुद्धस्फटिकेषु नक्तम् । चक्रे स्फुटं हाटककुम्भकोटिर्नभस्तलाम्भोरुहकोशशङ्कयंम् ॥ - नेमिनिर्वाण, १/५५
२. चक्रायमाणैर्मणिकर्णपूरैः पाशप्रकाशैरतिहारहारैः । भूभिश्च चापाकृतिभिर्विरेजुः कामास्त्रशाला इव यत्र बालाः ।। सुगन्धिनः संनिहिता मुखस्य स्मितद्युता विच्छुरिता वधूनाम्। भृतः बभुर्वत्र भृशं प्रसूनसंक्रान्तरेणूत्करकर्बुरा वा ।। सभूयुगं चञ्चलनेत्रवाहं यस्यां स्फुरत्कुण्डलचारुचक्रम् । आरुह्य जातस्विजगद्विजेता वधूमुखस्यन्दनमाजमा ।। - वही, १/३९, ४५, ५२