________________
नेमिनिर्वाण में वर्णनवैचित्र्य
१७३
अनूदित कर रहे हैं । कुमुदनियों के ऊपर नवीन नवीन सूर्य का पड़ा हुआ जपा कुसुम के समान कान्तिवाला यह तेज शोभायमान होता हुआ ऐसा लगता है कि अपने पति चन्द्रमा के वियोग के दुःख से हृदय से खून का प्रवाह बहा रहे हों। वह समय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो तोड़ी गई इन्द्रनील . मणि के समान कान्ति वाले अन्तरिक्ष में चंचल मद के कारण धन रूपी पराग से लिप्त शरीर वाले,
शील सूर्य के घोड़ों द्वारा उदयाचल पर्वत के तट पर भ्रमरों के द्वारा कमलों पर आक्रमण किया जा रहा है। सन्ध्या के प्रारम्भ में फैले हुये अन्धकार रूपी कस्तूरी के पङ्क से और रात्रि में चन्द्रमा की कान्ति रूपी चन्दन के संचय से जिस लोक की अर्चना की गई है वह उस समय सूर्य की किरणों के समूह रूपी लेप से लिप्त हो रहा था । अर्थात् रात्रि को ज्योत्स्ना ने चन्दन द्रव्य से चर्चित कर दिया है। पर अब नवीन सूर्य किरणों से संसार कुंकम द्वारा लीपा जा रहा था ।
अन्धकार रूपी कीचड़ में फंसी पृथ्वी का पर्वत रूपी उन्नत श्रृंगों से उद्धार करते हुये उदय को प्राप्तः सूर्यदेव ने हजारों किरणों को फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है ।
प्रातः काल के वर्णन में कवि कहता है कि “प्रातः काल में पीले पीले पराग रूपी वस्त्र से ढके हुये शरीर वाले भ्रमरों का यह समूह महारानी के शोभा के सम्पूर्ण विलास रूपी भवन पर स्थित हो केवल वर्ण से ही नहीं अपितु कर्म से भी कालिमा को प्राप्त कर रहा था । प्रातः काल का बाल-अरुण कालसर्पिणी के समान प्रतीत हो रहा है। इसके बारे में कवि वर्णन करते है कि निर्दोष होने से सुन्दर पल्लवों के समान कान्ति वाला सूर्यमण्डल लोकान्धकार को नष्ट करने से महान् प्रभाव वाले काल सर्पराज के रत्न के समान मालूम पड़ता था । प्रातःकालीन शीतल मन्द सुगन्ध पवन के चित्रण में कवि कहता है कि स्वच्छ होकर तालाबों में कमलों के काँपने से चारों ओर से गिरे हुये पराग से आच्छादित भ्रमरावलि की वाचालता से अवगत होने वाला पवन मदोन्मत्त हाथी के समान धीरे धीरे प्रवाहित हो रहा था ।
१. सूर्योदयस्य समयस्त्वमिहाधुनापि, निद्रासि दासि न ददासि मनः स्वकृत्ये । इत्यादिकञ्चुकिवचस्तव के लिकीराः, प्रज्ञावशादनुवदन्ति मनोज्ञदन्ति ।। तेजो जपाकुसुमकान्ति कुमुद्वतीषु, विद्योतते निपतितं नवभानवीयम् । भर्तुः कलाकुलगृहस्य वियोगदुःखैर्निर्दारितादिव हृदो रुधिरप्रवाहः ।। भिन्नेन्द्रनीलमणिकान्तिभिरन्तरिक्षलोलैर्मदाद्धनपरागपरीतकायैः । तिग्मधुतेरुदयशैलतटं तुखैराक्रम्यते सरभसैः कमलं च भृंगैः ।। सन्ध्यागमे तततमोमृगनाभिप डैर्नक्तं च चन्द्ररुचिचन्दनसंचयेन । यच्चर्चितं तदधुना भुवनं नवीन - भास्वत्करौघषुसृणैरुपलिप्यते स्म ।। मग्नां तमः प्रसरपंकनिकायमध्याद्गामुद्धरन्सपदि पर्वशङ्गतम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकतां स्वकीयमहानं पतिः करसहस्रमसावखिन्नः । । एतत्प्रवालदलकोमलकान्तिजालमार्तण्डमण्डलमदोषतयाभिरामम् । लोकान्धकारगरलच्छिदुरप्रभावमाभाति रत्नमिव कालमहोरगस्य ।। स्वैरं विहृत्य सरसीषु सरोरुहाणामाकम्पनेन परितश्छुरितो रजोभिः । भृङ्गावलीमुखरशृङ्खलसूच्यमानो मन्दं मरुच्चरति चित्तभुवः करीव ।।
मिनिर्वाण, ३/१२-१६, २२, २३