________________
१७२
श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन प्रकृति के ऊपर मानव का आरोप करता हुआ कहता है -
“सूर्य के चले जाने से भाग्योदय से अन्य दिशा का सेवन करने वाला तथा अन्धकार समूह से आवृत्त मुँह वाला पक्षी-समूह समान दुःख से दुःखी हो रहा था । रोना धर्म मनुष्य का है कवि ने इसे पक्षियों में आरोपित कर मानव रूप का चित्रण किया है।
पृथ्वी रस का अत्यधिक पान करने से सूर्यदेव की किरणें पीली हो गयी थी- मन्द पड़ गयी थी, अतः पुनः पटुता प्राप्त करने के हेतु रात्रि में औषधियों का सेवन कर रही हैं ।
यहाँ सूर्य किरणों में मानवीय भावनाओं का आरोप किया गया है । कोई भी.मनुष्य क्षीण शरीर हो जाने पर पुनः शक्ति प्राप्त करने के लिये औषधियों का सेवन करता है, उसी प्रकार सूर्य किरणें भी औषधियों का सेवन कर रही हैं। . .
कुमुदनियों की सहानुभूति का चित्रण करता हुआ कवि उसमें मानवीय भावनाओं का आरोप करते हुये कहता है कि रात्रि में विहार करने वाले और सूर्य के वियोग से विलाप करते हुये पक्षियों की करुण क्रंदन रूपी विपत्ति को देखने में असमर्थ कुमुदिनी ने अपने कमल रूपी नेत्र बन्द कर लिये। ___ यहाँ कुमुदनियों में मानव भावनाओं का आरोप किया गया है।
उद्दीपन के रूप में प्रकृति चित्रण करते हुये कवि ने मलयानिल का वर्णन करते हुये कहा है कि - __"मलयानिल" पथिकों के मनरूपी कानन में कामदेव के समान अग्नि प्रदीप्त करने के लिये शिशिर ऋतु के बीत जाने से कमल पूर्ण दक्षिण दिशा को प्राप्त हुआ है।
इसी प्रकार आलम्बन के रूप में भी कवि ने प्रकृति-चित्रण किया है। सूर्योदय एवं प्रातःकालः
वाग्भट ने प्रभात वर्णन का बहुत सुन्दर चित्रण किया है । चन्द्रकिरणों से स्फटिक मणि निर्मित सा प्रासाद जो रात्रि में सुधा धवल प्रतीत होता था, अब सूर्य किरणों के सम्पर्क से कुंकुम स्नात सा मालूम पड़ रहा था । नदी और सरोवरों का जल अरुण प्रतीत हो रहा था। सूर्योदय का वर्णन करते हुये कवि कहता है :
सूर्य के उदित होने का समय है । मनोज्ञ दाँन्तो वाले क्रीड़ा-शुक अपनी बुद्धि के कारण १. प्रलयं गते दिनपतौ विधेर्वशात्परिरभ्य गाढमितरेतरं दिशः।
समदुःखिता इव पतत्रिणां रवै रुरुदुस्तमःसिचयसंवृताननाः ।। अतिमात्रपीतवसुधारसं क्रमात्परिमन्दतां गतमहःपतेर्महः । अधिगन्तुमात्मपटुतां पुनर्दिने धुवमौषधीरभुजत प्रतिक्षपम् ।। करुणस्वरं विलपतोरनेकशः पुरतो निशाविरहिणोर्विहंगयोः । .
विपदं विलोकयितुमक्षमा धुवं नलिनी सरोजनयनं न्यमीलयत् ।। - नेमिनिर्वाण ९/९-११ । २. पथिकमानसकाननपावकस्मरमिव प्रतिबोधयितुं दधे ।
यमदिशा शिशिरात्ययतः स्फुरत्कमलयामलया मलयानिलः ।। - वही, ६/१८ . ३. किशलयैः कुसुमैश्च निरन्तरै प्रतिदिगन्तमशोकमहीरुहः ।।
परिवृतः सहसा कमलेक्षणा क्रमहतो महतोरणसंनिभैः ।। - वही ६/३१