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नेमिनिर्वाण : भाषा शैली एवं गुणसन्निवेश
प्रसाद :
मम्मट ने कहा है- जैसे सूखे इन्धन में अग्नि शीघ्र ही व्याप्त हो जाती है, तथा स्वच्छ वस्त्र में जल व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार जो गुण सहसा ही चित्त में व्याप्त हो जाता है वह प्रसाद्गुण है । यह सभी रसों में व्याप्त रहता है ।
इसी प्रकार विश्वनाथ ने लिखा है कि सूखी लकड़ी में अग्नि की तरह जो चित्त में व्याप्त हो जाता है, वह प्रसादगुण है ।२
जहाँ शब्द के श्रवण मात्र से ही शब्द के अर्थ की प्रतीति हो जाती है जो सब में समान रूप से हो सकता है वह प्रसाद गुण का व्यंजक होता है ।
'नैमिनिर्वाण' में सर्वत्र ही इस गुण का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैंविलोकयन्यत्र कुतूहलेन लीलावतीनां मुखङ्कजानि । जज्ञे स्मरः सेर्ष्यरतिप्रयुक्तकर्णोत्पलाघातसुखं चिरेण । ।
श्रुत्वा तमार्तध्वनिमेकवीरः स्फारं दिगन्तेषु स दत्तदृष्टिः । ददर्श वाटं निकटे निषण्णः खिन्नाखिलश्वापदवर्गगर्भम् ।। श्रुत्वा वचस्तस्य स वश्यवृत्तिः स्फुरत्कृपान्तः करणः कुमारः । निवारयामास विवाहकर्माण्यधर्मभीरुः स्मृतपूर्वजन्मा । ।
१. शुष्केन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः । व्याप्नोत्यत्यन्यत्प्रसादो सौ सर्वत्र विहितस्थितिः ।।
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२. साहित्यदर्पण, ८/४
३. श्रुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो भवेत् । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः । ।
४. नेमिनिर्वाण, १/४४
५. वही, १३ / २,५
- काव्यप्रकाश, ८/७०
- काव्यप्रकाश, ८/७६