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अध्याय-चार नेमिनिर्वाण : भाषा शैली एवम् गुणसन्निवेश
साहित्य में शैली से तात्पर्य 'रीति' या मार्ग' से होता है । संस्कृत काव्यशास्त्र में इसी आधार पर रीति सम्प्रदाय' नाम से एक अलग सम्प्रदाय चल पडा है, जिसके जनक आचार्य वामन थे । इनसे पहले 'रीति' के स्थान पर ‘मार्ग' शब्द का प्रयोग किया जाता था। आचार्य वामन ने 'रीतिरात्मा काव्यस्य' कहकर रीति को ही काव्य की आत्मा स्वीकारा है अर्थात् जिस प्रकार आत्मा के अभाव में शरीर अस्तित्वहीन होता है, उसी प्रकार रीति के बिना काव्य का कोई अस्तित्व नहीं है।
रीति शब्द रीङ्' गतौ धातु से क्तिन् प्रत्यय के योग से बना है, जिसका अर्थ है गति, मार्ग, वीथि या पन्थ । सरस्वती कण्ठाभरण के टीकाकार रामेश्वर मिश्र ने लिखा है कि गुणों से युक्त पद रचना रीति है । जिसके द्वारा परम्परया चला जाता है, उसे रीति कहते हैं, अतः रीति से अभिप्राय मार्ग से है। प्रत्येक कवि अपने-अपने भावों की अभिव्यक्ति अपने अपने ढंग से करता है । एक ही अर्थ को अनेक कवि अलग-अलग पदावलियों में प्रस्तुत कर सकते हैं और इससे रचनाओं के पढ़ने से आनन्द और सौन्दर्य की मात्रा में भी अन्तर पड़ता है । वास्तव में शैली का सम्बन्ध रचनाकार के व्यक्तित्व से होता है तभी तो किसी भी रचना पर उसके रचयिता के व्यक्तित्व की छाप अवश्यमेव पड़ती है।
रीति के स्वरूप के विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर के अंगों का संगठन होता है, उसी प्रकार भाषा में पदों का संगठन होता है और इसी संगठन को रीति कहा जाता है । आचार्य विश्वनाथ के अनुसार यह काव्य के आत्मभूत तत्त्व रस, भाव आदि की उपकारक होती है।
भिन्न-भिन्न आचायों ने रीति के भिन्न-भिन्न भेद किये हैं, किन्तु सबके निष्कर्ष स्वरूप आचार्य विश्वनाथ ने रीति के चार ही भेद स्वीकारे हैं और यही विद्वत् समुदाय में प्रचलित है - वैदर्भी, गौडी, पांचाली तथा लाटिका ।
नेमिनिर्वाण काव्य में प्रायः सभी रीतियों का प्रयोग हुआ है, जो इस प्रकार हैं - वैदर्भीरीति : __ मधुशब्दों से युक्त समास रहित अथवा छोटे-छोटे समासयुक्त पदों से मनोहर रचना को वैदर्भीरीति कहते हैं । यथा
विलोकयन्यत्र कुतूहलेन लीलावतीनां मुखपंकजानि । जज्ञे स्मरः सेयॆरतिप्रयुक्तकर्णोत्पलाघातसुखं चिरेण ।।'
१. सरस्वती कण्ठाभरण, २/२६ २. पदसंगठना रीतिरंगसंस्थाविशेषवत् । उपकृती रसादीनां सा पुनः स्याच्चतुर्विधाः ।। - साहित्यदर्पणं, ९/१ ३. वैदर्भीचाथ गौडी च पांचाली लाटिका तथा । साहित्य दर्पण ९/२ ४. माधुर्यव्यंजकैः रचना ललितात्मिका । अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते।।, वही ९/२-३ ५. नेमिनिर्वाण,१/४४