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मिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प
अलंकार
अलंकार शब्द की रचना अलं + कृ + अ धातु एवं प्रत्यय के संयोग से हुई है । उसका अर्थ है 'सजावट' । अलंकार शब्द में अलं तथा कार दो शब्द हैं। जिसका अर्थ हैजो अलंकृत करे, वह अलंकार है । 'अलंकरोतीति अलंकार:' अथवा 'अलंक्रियते अनेनेत्यलंकारः ।
काव्यशास्त्र में भी इसका यही अर्थ ग्रहण किया गया है। शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं, रस आत्मा और अलंकार कटक कुण्डल की भांति काव्य को अलंकृत करते हैं । ये काव्य के उत्कर्षाधायक तत्त्व हैं । दण्डी ने कहा है- “ काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्ष्यते” । मम्मट ने अलंकार का स्वरूप निर्धारण करते हुये रस का उपकारी धर्म माना है। आचार्य विश्वनाथ ने स्पष्ट परिभाषा देते हुए कहा है शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलंकारास्तेङ्गदादिवत् । ।२ अर्थात् जैसे अगंद आदि आभूषण मनुष्य शरीर के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते हैं, वैसे ही अनुप्रास आदि अलंकार शब्द और अर्थ के सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते हुए रस भाव आदि के प्रकाशन में सहायता प्रदान करते हैं ।
अध्याय - तीन (घ)
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आचार्य भामह 'शब्द और अर्थ के वैचित्र्य' को अलंकार कहते हैं । वामन ने तो स्पष्ट रूप से कह दिया है- “सौन्दर्यमलंकारः” । ३ राजशेखर तो उपकारक होने के कारण अलंकार को वेद के षड़गों के अतिरिक्त सातवां अङ्ग मानते हैं । “उपकारकत्वादलंकारः सप्तममङ्गमिति यायावरीयः” । ध्वनिवादी आचार्य अलंकारों को. काव्य के अस्थिर धर्म मानते हैं ।
सभी परिभाषाओं में विश्वनाथ की परिभाषा श्रेयस्कर है। क्योकिं शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य का शरीर माना गया है, अतः उन दोनों के शोभावर्धक धर्म अलंकारों को भी दो वर्गों में विभक्त किया है
१. काव्यादर्श द्वितीय परिच्छेद-१
३. काव्यालंकारसूत्र, १/२
१. शब्दालंकार
२. अर्थालंकार
अलंकारों का यह विभाजन शब्दपरिवृत्यसहिष्णुत्व और शब्द परिवृत्तिसहिष्णुत्व के आधार किया गया है अर्थात जहाँ शब्दों के बदल देने से अलंकार की चमत्कृति समाप्त हो
२. साहित्य दर्पण, १० / १
४. काव्यमीमांसा, द्वितीय अध्याय, पृ० ६