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नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प : छन्द
१३९ (४) अनुष्टुपः इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ अक्षर होते हैं । चारों चरणों में छठा अक्षर गुरु होता है तथा पाँचवा लघु होता है । दूसरे और चौथे चरण में सातवां अक्षर हस्व तथा प्रथम और तृतीय चरण में सातवां अक्षर दीर्घ होता है । उसे श्लोक या अनुष्टुप् छन्द कहते हैं।
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । द्विचतुष्पादयोहस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ।। यथा - अथ क्रीडागिरौ तत्र विचित्रतरुसंततौ। चेलुर्वनविहाराय माधवाः सावरोधनाः ।। नेमिनिर्वाण में अनुष्टुप् प्रयोग के अन्य स्थल - चतुर्थ सर्ग- ६१, षष्ठ सर्ग-४८,
अष्टम सर्ग-२ से७९ तक, एकादश सर्ग-५७, द्वादश सर्ग-१ से ६९ तक, पंचदश सर्ग-१ से ८४ तक नेमिनिर्माण काव्य में अनुष्टुप् छन्द का ही सर्वाधिक प्रयोग हुआ है।
(५) विद्युन्माला: यह आठ-आठ वर्गों का वृत्त है । इसमें क्रमशः मगण, मगण तथा दो गुरु होते हैं । यथा -
'विद्युन्माला' दण्डोद्दामत्रीकाः कामं मेघा नाम ।
कृष्णच्छत्रच्छायां तुङ्गा बिभ्रत्यस्मिन्नेते नागाः ।। (६) प्रमाणिका : यह आठ वर्णों का वृत्त है । जिसके प्रत्येक पाद में क्रमशः जगण, रगण, लघु और गुरु होते हैं । उसे प्रमाणिका कहते हैं । यथा -
इहावहन्न का तटी जलेरुहां रजो गिरौ ।।
विभो सदा सुराचलप्रमाणिका सुवर्णगौः ।। (७) हंसरूत : इस वृत्त में आठ-आठ वर्ण होते हैं । इसमें क्रमशः मगण, नगण तथा दो गुरु होते हैं । यथा -
कासारेष्विह हि निम्नक्षीरापूररुचिरेषु ।
गौरांगी हदि रतेच्छां दत्ते हंसरुतमीश ।। (८) माद्यद्भग : यह छन्द, छन्दः शास्त्रीय प्रचलित ग्रन्थों में अनुपलब्ध है । वाग्भट ने श्लोक में इसे माद्य ग नाम से उल्लिखित किया है यह नो वर्गों का वृत्त है जिसके प्रत्येक पाद में क्रमशः एक भगण, दो मगण हो वह माधग कहलाता है । यथा -
प्राप्य वसन्तं हर्षादम्भः पूर्णनदीके 'माद्यभृङ्गम्' । अत्र गिरीन्द्रे श्रीमन्नागं क्रीडति नित्यं दिव्यं युग्मम् ।।
१. श्रुतबोध,१० २. नेमिनिर्वाण, ८/९ ३. मे मो गो गो विद्युन्माला । वृ० र०, ३.९२ ४. नेमिनिर्वाण,७/५ ५. प्रमाणिका जरौ लगी । वृ० १०, ३/९८ ६. नेमिनिर्वाण,७/७ ७. मनौ गौ हंसरुतमेतत् । वृ० २०, ३/९४ ८. नेमिनिर्वाण, ७/९ ९.नेमिनिर्वाण, ७/८