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प्रयोग के अन्य स्थल - द्वितीय सर्ग - २
से
५९ तक, सप्तम सर्ग - २१
(३२) नन्दिनी : नन्दिनी तेरह वर्णों का छन्द है, जिसमें क्रमशः सगण, जगण, सगण, जगण और एक गुरु होता है । इसे ही सुनन्दिनी भी कहा जाता है । यथा -
अतिथीभवन्तमथ तं वसुक्षये शिरसा बभार रविमस्तभूधरः । उपकारिणां स्वयमहो महस्विनामुपकर्तुमन्तरमतीव दुर्लभम् ।।
श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् ः एक अध्ययन
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प्रयोग के अन्य स्थल - सप्तम सर्ग: ३७ नवम सर्ग -
I
(३३) चन्द्रिका: यह तेरह वर्णों का वृत्त है । इसमें क्रमशः नगण, नगण, तगण रगण तथा गुरु होते हैं । इसमें सातवें तथा छठे वर्णों पर यति होती है । यथानलिननयननिर्गामिनिर्झरोधप्रतिमरुचिभिरह्नां क्षयेषु नूनम् ।
व्रजति बहुलतामीश चन्द्रिकात्र प्रतिमितमणिसानूत्थरश्मिपूगैः ।।
(३४) मंजुभाषिणी : छन्द की सार्थकता नाम से प्रतीत होती है । इसमें सुन्दर शब्दों व मनोहर भावों का प्रयोग होता है । इस छन्द में क्रमशः सगण, जगण, सगण, जगण तथा दो गुरु होते हैं ।" यथा
२ से ५५ तक
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जनस्य चेतो भवविकारमुद्धतं समर्पयन्ती मधुकेलिनादजम् ।
गजेन्द्रगामिन्निह हि मञ्जुभाषिणी पिकी सदानित्यसहकारकोर ।।
(३५) मत्तमयूर : इस छन्द में क्रमशः मंगण, तगण, यगण, सगण तथा गुरु होता है। इसके चौथे, नवें वर्णों पर यति होती है । यथा
मार्तण्डारिस्या (श्या) मलसत्काम्बुदजातौ शैलाधीशे निर्मलनानागुणका । सद्यः पुष्पामोदगुणानन्दित भृङ्गं किं किं नास्मिन्मत्तमूयरं वनमीश ।। "
(३६) वसन्ततिलका : इस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः तगण, भगण तथा दो जगण और दो गुरु होते हैं ।" काश्यप मुनि ने इसे 'सिंहोन्नता' कहा है । सैतव मुनि ने 'उद्घार्षिणी' तथा पिंगल ने मधुमाधवी कहा है । यथा -
अभ्युल्लसन्नयनवारिरुहस्मितायाः, स्वप्नान्तरातिशयदर्शनविस्मितायाः ।
तस्याः पुरः परिणतार्थपदैर्वचौभिः, श्यामा विराममिति काचिदुवाच देवी । ।"
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१. सजसा जगौ यदि तदा सुनन्दिनी । वृ० २०३ / १५८ की पादटिप्पणी ३. ननतरगुरुभिश्चन्द्रिकाश्वर्तुभिः ।। वृ० २०, ३ / १५९ सजसा जगौ भवति मञ्जुभाषिणी । । वृ० १०, ३/१५८
७. वेदैरन्यैम्र्तो य स गा मत्तमयूरम् ।। वृ० २०, ३/१५७ उक्ता वसन्ततिलका तभजाजगौगः । वृ० २०, ३ / १६४
९.
२. नेमिनिर्वाण, ९/१
४. नेमिनिर्वाण, ७/३४
६. नेमिनिर्वाण, ७/३५
८. नेमिनिर्वाण, ७/३६
१०. नेमिनिर्वाण, ३/१