________________
१०१
नेमिनिर्वाण की कथावस्तु मंडलेश्वर राजाओं के पुत्रों से घिरे हुये हैं, ऐसे नैनाभिराम भगवान नेमिकुमार भी चित्रा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिये निकले । वहाँ उन्होंने घोर करुण स्वर से चिल्ला-चिल्ला कर इधर-उधर दौड़ते प्यासे दीन दृष्टि से युक्त तथा भय से व्याकुल हुये मृगों को देख दयावश वहाँ के रक्षकों से पूछा कि यह पशुओं का बहुत भारी समूह यहाँ एक जगह किसलिये रोका गया है ! उत्तर में रक्षकों ने कहा कि हे देव ! आपके विवाहोत्सव में भोजन के लिए महाराज श्रीकृष्ण ने इन्हें बुलाया है। यह सुनते ही भगवान् नेमिनाथ विचार करने लगे कि ये पशु जंगल में रहते हैं । तृण खाते हैं और कभी किसी का कुछ अपराध नहीं करते हैं फिर भी लोग इन्हें अपने भोग के लिये पीड़ा पहुँचाते हैं, ऐसे लोगों को धिक्कार है अथवा जिनके चित्त में गाढ़ मिथ्यात्व भरा हुआ है ऐसे मूर्ख तथा दयाहीन प्राणी अपने नश्वर प्राणों के द्वारा जीवित रहने के लिये क्या नहीं करते हैं, देखो ! कृष्ण ने मुझ पर अपने राज्य ग्रहण की आशंका कर ऐसा कपट किया है । ऐसा विचार कर वे विरक्त हुये और लौटकर अपने घर आ गये ।
वैराग्य के प्रकट होने से उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर उन्हें समझाया, अपने पूर्व भवों का स्मरण कर वे भय से काँप उठें, उसी समय इन्द्रों ने आकर दीक्षा कल्याणक का उत्सव किया । तदनन्तर देवकुरु नामक पालकी पर सवार होकर वे देवों के साथ चल पड़े। सहस्राम वन में जाकर वेला का नियम लिया और श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल के समय कुमार काल के ३०० वर्ष बीत जाने पर एक हजार राजाओं के साथ-साथ संयन धारण किया उसी समय उन्हें चौथा मनःपर्ययज्ञान हो गया और केवल ज्ञान भी निकट काल में हो जावेगा । जिस प्रकार सन्ध्या सूर्य के पीछे-पीछे अस्ताचल पर चली जाती है उसी प्रकार राजीमती भी तपश्चरण के लिये उनके पीछे-पीछे चली गयी । सो ठीक ही है क्योंकि शरीर की तो बात दूर रही वचन मात्र से भी दी हुई कुलस्त्रियों का यही न्याय है । अन्य मनुष्य तो अपने दुःख से भी विरक्त नहीं सुने जाते पर जो सज्जन पुरुष होते हैं वें दूसरो के दुःख से ही महाविभूति का परित्याग कर देते हैं । बलदेव तथा नारायण आदि मुख्य राजा और इन्द्र आदि देव सब अनेक स्तवनों के द्वारा उन भगवान की स्तुति कर अपने अपने स्थान पर चले गये । पारणा के दिन उन भगवान ने द्वारावती नगरी में प्रवेश किया । वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले तथा श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न राजा वरदत्त ने पडगाहन? आदि नवधा भक्ति कर उन्हें मुनियों के ग्रहण करने योग्य शुद्ध प्रासुक आहार दिया तथा पंचाश्चर्य प्राप्त किये। उसके घर देवों के हाथ से छोड़ी हुई साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वर्षा हुई, फूल बरसे । मन्दता आदि तीन गुणों से युक्त वायु चलने लगी । मेघों के भीतर छिपे देवों के द्वारा ताडितदुन्दुभियों का सुन्दर शब्द होने लगा और 'आपने बहुत अच्छा दान दिया' यह घोषणा होने लगी । इस प्रकार तपस्या करते हुये जब उनकी छद्मस्थ अवस्था के ५६ दिन व्यतीत हो गये तब एक