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नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प : रस
१२१ उत्पाद्य-उत्पादक, अनुभावों का गम्य-गमक भाव तथा व्यभिचारी भावों का पोष्य-पोषक भाव सम्बन्ध है।
(२) शंकुक : शंकुक के मत में रस अनुमेय है, विभाव, अनुभाव आदि अनुमापक और इनमें अनुमाप्य-अनुमापक सम्बन्ध है । रत्यादि स्थायी भाव रामादि में विद्यमान रहता है, विभावादि से अनुमित होकर वह रस कहलाता है । अतः वह मुख्य रूप से राम आदि अनुकार्य में होता है, सहृदय उसका अनुमान नट में कर लेता है।
शंकुक का यह मत भट्टलोल्लट पर आधारित है । अन्तर मात्र इतना है कि वहाँ सहृदय नट पर रामादि का आरोप करता है और यहाँ अनुमान ।
___ इस प्रकार दोनों के मतों में न्यूनता यह है कि ये रस की स्थिति अनुकार्य में मानते हैं तो सामाजिकों को इसमें क्या लाभ? अनुमिति परोक्ष वस्तु की होती है, किन्तु रस तो प्रत्यक्ष है।
(३) भट्टनायक : भट्टनायक का मत भुक्तिवाद के नाम से विख्यात है। उनके मत में रस की उत्पत्ति न अनुकार्य राम में होती है न अनुकर्ता नट में, क्योंकि ये दोनों तटस्थ (उदासीन) हैं । वास्तविक रस की उत्पत्ति सामाजिक में होती है । भट्टनायक ने अपने मत की स्थापना के लिये अभिधा के अतिरिक्त भावकत्व और भोजकत्व नामक दो नवीन व्यापारों की कल्पना की है।
अभिधा में अर्थमात्र का बोध होता है । भावकत्व व्यापार अभिधाजन्य अर्थ को परिष्कृत कर सामाजिक के उपभोग के योग्य बना देता है । यही व्यापार व्यक्ति विशेष का सम्बन्ध हटाकर उसका साधारणीकरण कर देता है । तदन्तर भोजकत्व व्यापार साधारणीकृत विभाव आदि का रस के रूप में भोग करवाता है, किन्तु इन भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों की कल्पना अनुभवसिद्ध नहीं है।
(४) अभिनवगुप्त : इनका मत अभिव्यक्तिवाद के नाम से जाना जाता है । इनके मत में सामाजिक गत स्थायी भाव ही रसानुभूति का निमित्त होता है । यहाँ निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति है । इसमें रस अभिव्यक्ति का क्रम इस प्रकार है - सर्वप्रथम काव्य के पदों से उन-उन अर्थों की प्रतीति होती है तदनन्तर उपस्थित विभावादि के द्वारा वाक्यार्थ का बोध होता है । तत्पश्चात् अभिनयादि से रत्यादि वासना से युक्त सहृदय सामाजिक का उन-उन विभावादियों के साथ साधारणीकरण होता है और इस साधारणीकरण व्यापार के द्वारा विभावादिकों से युक्त रत्यादि से अवछिन्न अज्ञानावरण के हट जाने के कारण अखण्ड चिदानन्द स्वरूप रस की प्रतीति सामाजिक को होती है । इस प्रकार अभिनव गुप्त ने रस की अवस्थिति सामाजिकों में मानी है, जो निश्चय ही उपादेय है।
रस अलौकिक वस्तु है, सत्त्वगुण का उद्रेक होने पर यह अखण्ड रूप में स्वयं प्रकाश, आनन्दमय और चैतन्य रूप में भासित होता है । इस समय अन्य किसी का ज्ञान नहीं होता