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अध्याय-दो (ग) परिवर्तन एवं परिवर्द्धन वास्तव में महाकाव्य ऐतिहासिक या सज्जनाश्रित कथानक को ही गुंफित करता है, अतः महाकाव्य की कथावस्तु तो प्रायः बनी बनाई मिल जाती है किन्तु कवि अपनी मौलिक नव-नवोन्मेषशालिनी बुद्धि से महाकाव्य के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रसिद्ध कथानक में कुछ आवश्यक परिवर्तन या परिवर्द्धन करके उसे एक नया रूप दे देता है । कवि के इस परिवर्तन या परिवर्द्धन से मूल कथानक के ऐतिहासिक या प्रसिद्ध कथानक में कोई विसंगति भी उत्पन्न नहीं होती है और कवि भी अपने लक्ष्य में सफल हो जाता है ।
महाकवि वाग्भट ने नेमिनिर्वाण महाकाव्य में इस तरह के परिवर्तन और परिवर्द्धन किये हैं जिससे कि कथानक के मूल गठन में कहीं-कहीं शिथिलता भी आ गई है । इस काव्य में मुख्य घटनाओं को प्रायः यत्र-तत्र स्मृति मात्र करके पूर्णतया छोड़ ही दिया है । यद्यपि अलंकृत काव्य शैली का अनुकरण करने से कवि ने जीवन-व्यापी कथावस्तु में से मर्मस्पर्शी कुछ अंशों को ही विस्तार देने का प्रयास किया है तो भी कथावस्तु को कवि सुडौल नहीं बना सका, हाँ वर्णन चमत्कारों की योजना में कथानक गठन में पूर्ण सहायता प्रदान की है । नेमिनिर्वाण का कथानक कवि ने जिनसेन प्रथम के हरिवंश पुराण तथा गुणभद्र के उत्तर पुराण से ग्रहण किया है । कवि ने इन दोनों के अतिरिक्त तिलोयपण्णत्ति जैसे आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन भी किया है । वास्तविक रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि नेमिनिर्वाण में वर्णित जीवनवृत्त पूर्णरूप से हरिवंशपुराण के समान है । नेमिनाथ की जन्मतिथि का मेल केवल उत्तर पुराण से ही ठीक मिल पाता है, हरिवंशपुराण से नहीं । कवि ने यह बात यथावत् स्वीकारी है । किन्तु काव्य प्रणयन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये कुछ आवश्यक परिवर्तन और परिवर्द्धन भी किये हैं।
अब यहाँ उन्हीं मूल कथानक के आधार पर नेमिनिर्वाण में किये गये प्रमुख परिवर्तन और परिर्धनों का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है - १. हरिवंशपुराण में नेमिनाथ भगवान् की जन्मतिथि वैशाख शुक्ला त्रयोदशी निर्दिष्ट की
गई है, जबकि नेमिनिर्वाण महाकाव्य में यह तिथि श्रावण शुक्ला षष्ठी उल्लिखित है। २. यद्यपि नेमिनिर्वाणकार महाकवि वाग्भट ने अपनी कथावस्तु का ग्रहण जिनसेनकृत हरिवंशपुराण
१. ततः कृतसुसंगमे निशि निशाकरे चित्रया, प्रशस्तसमवस्थिते ग्रहगणे समस्ते शुभे
असूत तनयं शिवा शिवदशुद्धवैशाखजायोदशतिथौ जगज्जयनकारिणं हारिणम् ।हरिवंशपुराण, ३८/९ २. शुक्लपक्षभवषष्ठवासरे साथ मासि नभसि प्रसपति ।
नन्दनं सकललोकनन्दनं सत्रियेव सुषुवे समीहितम् । । नेमिनिर्वाण, ४/१३