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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन गुरु होती है । उन्होंने घोर तपश्चरण प्रारम्भ कर दिया । तपस्या के साथ ही उस बुद्धिमान् की परमज्योति (ज्ञान) भी बढ़ने लगी । कामदेव आदि शत्रु शरीर के साथ कृशता को प्राप्त हो गये । उनके प्रभाव से पर्वत पर हिंसक पशुओं ने भी हिंसा को त्याग दिया । उन्हें न तो सूर्य का सन्ताप और न चन्द्रमा की शीतलता का अनुभव हुआ, क्योंकि वे दिन रात इन्द्रियों की वृत्ति को रोक कर स्थित रहे । धीरे-धीरे वर्षा ऋतु ने प्रवेश किया । आकाश में सूर्य के सन्ताप को दूर करने के लिये ही मानो मेघों का समूह व्याप्त हो गया किन्तु वे खुले वातावरण में ज्यों के त्यों तपस्या करते रहे । हाथी, शेर आदि से व्याप्त जंगल में उस मुनि की रक्षा के लिये उद्यत होकर मरुत्पति ने धनुष को धारण कर लिया । नवीन-नवीन मेघों के समूह ने वर्षा के द्वारा मानो इसलिए छत्रों को धारण कर लिया जिससे मुनि खेद को प्राप्त न हों । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिन रात वर्षा होने पर भी उस मुनि का पवित्र मानस रूपी भूषण वाला हंस थोड़ा भी क्षुभित नहीं हुआ। चारों तरफ नदियों के कलुषित हो जाने पर भी वन में कोई अन्तर नहीं आया । कलश के समान विस्तीर्ण मेघों के द्वारा इन्द्र ने तरुण युवक के समान उस महामुनि का अभिषेक कर दिया । इसी प्रकार ग्रीष्म और शरद् ऋतु के खुले वातावरण में भी वे निरन्तर कायोत्सर्ग पूर्वक तपस्या करते रहे । इसके बाद उन्होंने शुक्ल ध्यान द्वारा कर्म-कलंक नष्टकर केवल ज्ञान को प्राप्त किया । पंचदश सर्ग:
इसके बाद अनुरक्त मुक्ति रूपी बधू के द्वारा मुक्त कटाक्षों के समान पुष्प वृष्टि होने लगी । उनके आश्चर्यजनक प्रभाव से २०० योजन तक प्राणियों को अकाल ने बाधा नहीं पहुँचाई । अशोक वृक्ष में सुन्दर-सुन्दर पल्लव आ गये । उनका भामण्डल सुसज्जित होने लगा। भामण्डल के भय से ही मानों छाया ने उसके अन्दर ही प्रवेश कर लिया जिससे सभी के चित्त शान्त हो गये। सभी दिशाओं में उनके नेत्र निर्निमेष शोभायमान होने लगे। उनके नाखून और बालों में वृद्धि नहीं हुई । छोटे-छोटे प्राणियों के प्राणों के नाश के डर से ही मानों वे पृथ्वी तल को छोडकर ऊपर विचरण करने लगे। भत भविष्यत और वर्तमान की सभी वस्तओं के ज्ञान के कारण उनके समीप तीन छत्र सुशोभित होने लगे । आकाश में दुन्दुभि बजने लगी। अपने समय के बिना भी वृक्षों में फल फूल आ गये । इन्द्र की आज्ञा को पाकर कुबेर ने उनके लिये रत्नमयी सभा का निर्माण करा दिया । उस सभा में नेमि प्रभु रत्न सिंहासन पर आरूढ़ हुए । इसके बाद देवों ने आकर विभिन्न प्रकार से तीर्थङ्कर नेमिप्रभु की स्तुति की । इसके बाद उन्होंने जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का उपदेश दिया। "जीव” चेतना लक्षण वाला होता है और यह शरीर प्रमाण है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भेद से यह पाँच प्रकार का है। पृथ्वी-कायिक आदि एकेन्द्रिय, संखादि द्वीन्द्रिय, चींटी आदि वीन्द्रिय, भ्रमर आदि चार इन्द्रिय और मनुष्यादि पंचेन्द्रिय हैं ।