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सर्गानुसार कथानक
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गति की अपेक्षा जीव चार प्रकार के होते हैं - नारक. तिथंच, मनुष्य और देवा धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा पुद्गल ये अजीव हैं । धर्म, गति का कारण और अधर्म स्थिति का कारण
काल और आकाश अनश्वर हैं और ये जगत् में व्याप्त हैं । काय, वचन और मन का योग “आश्रव" कहलाता है । यही सम्पूर्ण संसार रूपी नाटक का सूत्रधार है । अपने शुभाशुभ कर्मों का बन्ध जाना “बन्ध" कहा गया है । उत्पन्न हुए अनाबद्धा कर्मों की संवृत्ति (रूकना) “संवर" कहलाता है । फलभोग से कर्मों का क्षय होना “निर्जरा" कही गई है। निर्जरा से आत्मा निर्मलता को प्राप्त होती है । अनेक जन्म - जन्मान्तर से बद्ध सभी कर्मों का विप्रमोक्ष (छुटकारा) “मोक्ष' कहा गया है । इस प्रकार तीर्थङ्कर केवली नेमिप्रभु ने सप्त तत्त्वों का उपदेश दिया । तत्पश्चात् उन्होंने सूर्य की तरह समस्त देशों का अज्ञानान्धकार दूर करने के लिये विहार किया । जहाँ-जहाँ उन्होंने विहार किया, वहाँ अकाल की स्थिति नहीं रही । सभी ऋतुएं एक साथ उनकी सेवा करने लगी । अन्त में सभी दिशाओं में धर्म का प्रभाव कर सभी कर्मों को नष्ट करके उन्होंने मुक्ति-वधू के साथ अनश्वर सुखों का सेवन किया ।