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सर्गानुसार कथानक द्वादश सर्ग :
उग्रसेन की पुरी के प्रति विवाह के प्रस्थान के लिए नेमिनाथ ने विधिपूर्वक नेपथ्य (सजने का काय) विधि को स्वीकार किया । नेमि की वर यात्रा सजने लगी । कुशल श्रृंगार-वेत्ताओं ने उसका श्रृंगार किया, शुभ्रवस्त्र धारण किये हुये नेमि का शरीर अंजनगिरि पर विश्राम करने के लिए आये हुये शरत्कालीन मेघ के समान प्रतीत होता था । महान वैभव और सम्पत्ति से युक्त नेमि सहस्रनेत्रों की प्राप्ति के लिये इन्द्र के समान प्रतीत होते थे।
स्वर्णनिर्मित तोरण युक्त राजमार्ग से नेमि शनैः शनैः जा रहे थे । उधर राजीमती का भी सुन्दर श्रृंगार किया गया था । वर के सौन्दर्य का अवलोकन करने के लिये नारियाँ गवाक्षों में स्थित हो गई थी। सभी लोग राजीमती के भाग्य की प्रशंसा कर रहे थे । अरिष्टनेमि सम्बन्धियों के साथ दरवाजे पर लाये गये । दूर्वा, अक्षत, मलयज, कुमकुम और दधि से पूर्ण स्वर्ण पात्र को लिये हुये उग्रसेन कन्या राजीमती स्वागतार्थ प्रस्तुत हुई । त्रयोदश सर्ग :
रथ से उतरने के लिए प्रस्तुत अरिष्टनेमि ने विवाह यज्ञ में बंधे हुये पशुओं के करुण क्रन्दन को सुना । दुःखी ध्वनि को सुनकर उस वीर का हृदय पीड़ित हुआ । नेमि ने सारथि से पूछा कि यह एक साथ बंधे हुये पशुओं की ध्वनि क्यों सुनाई पड़ रही है? सारथि ने उत्तर दिया कि आपके इस विवाह में सम्मिलित होने वाले अतिथियों को इन पशुओं का माँस खिलाया जायेगा। सारथि के इस उत्तर को सुनकर नेमि को अपार वेदना हुई और उन्हें अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। वे रथ से उतर पड़े
और समस्त वैवाहिक चिह्नों को शरीर से उतार दिया। उग्रसेन आदि को जब यह समाचार मिला तो सभी अरिष्ट नेमि को समझाने लगे । नेमि ने उत्तर दिया - मैं विवाह नहीं करूँगा, परमार्थ सिद्धि के लिये तथा जगत् से हिंसा को दूर करने के लिये तप करूँगा।
इस सन्दर्भ में उन्होंने अपने शिकारी जीवन से लेकर जयन्त विमान में उत्पन्न होने तक की पूर्व भवावलि भी सुनायी । नेमि समस्त परिजन और पुरीजनों को समझाकर आसुओं से युक्त नयनवाले माता-पिता से आज्ञा लेकर एवं पुत्री के दुःख से उद्विग्न श्वसुर को भी बारम्बार सम्बोधित करके मुक्ति-लक्ष्मी के धारण करने के लिए रैवतक पर्वत के वन में चले गये ।
चतुर्दश सर्ग :
इसके बाद उन नेमिप्रभु ने इन्द्र के अनुयायी दिक्पतियों को लौटाकर रैवतक पर्वत के ऊपर मुक्ति-मार्ग के मणि-सोपान की तरह आरोहण किया । रमणीयता के कारण वह पर्वत केवल देवताओं के सेवन को प्राप्त नहीं हुआ, अपितु नेमि प्रभु के चरणों से पवित्र होकर यह तीर्थ के रूप में सेव्यता को प्राप्त हुआ । नेमि प्रभु के आरोहण करते ही अनुकूल हवा चलने लगी । उन्होंने स्वयं ही वहाँ संयम को धारण कर लिया, क्योंकि ज्ञानी लोगों की आत्मा ही