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सर्गानुसार कथानक गाती हुई देवाङ्गनायें कहने लगी कि हे महारानी स्थिर पद से विजय प्राप्त करो, इस प्रकार कहे जाने पर रानी श्रृंगार मण्डप में गई और वहाँ तुरन्त शोभायमान निर्मल वस्त्रों को धारण करके प्रकाशमान मुखरूपी चन्द्रमा से जगायी गई कमलिनी रूपी सुनयनी शरद् ऋतु की तरह और शोभायमान हुई।
महारानी शिवादेवी शय्या त्याग दन्तकान्ति के बहाने हर्ष प्रकट करती हुई श्रृंगार की लता के समान राजा के समीप आकर हर्ष प्रकट करती हुई उन अद्भुत स्वपों के फल पूछने लगी । इस प्रकार महाराज ने उन स्वप्नों को सुनकर कहा - हे देवी ! तुम्हें जगन्मान्य पुत्र प्राप्त होगा तथा सम्पूर्ण स्वप्नों का क्रमशः फल कहकर सुनाया । चतुर्थ सर्ग :
तीर्थङ्कर के गर्भ में आने से राजा के चित्त की शोभा बढ़ गई और शिवादेवी का सौन्दर्य और अधिक वृद्धि को प्राप्त हो गया । रत्नों के समूह से जड़ित निर्मल वस्त्र की पताका वत शुभ गर्भ से उस रानी ने राजा के उन्नत वंश को सुशोभित किया । विनीत देवताओं के सिर से गिरे हुये पारिजात पुष्पों की माला के पराग को पाकर शिवादेवी के चरण अत्यधिक उज्ज्वल हो गये । क्रमशः गर्भ लक्षण प्रकट करने के कारण महारानी ने सरकण्डे के समान पीले शरीर को धारण किया । दोनों स्तन अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त कर गर्भ से भारी शरीर वाली उस महारानी ने स्वयं भी खेद प्रकट किया । राजा के मन को आनन्दित करने वाली हथिनी की तरह गर्भ के भार से अत्यन्त मन्द-मन्द गति को धारण किया। इसके बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन रानी ने पुत्र को जन्म दिया । समीप में मौजूद उस पुत्र के उत्पन्न होने से वह सुन्दरी शीघ्र ही उसी तरह सुशोभित हुई जैसे काजल के समान काले धब्बे से चन्द्रमा की कला शोभायमान होती है । देवताओं के देदीप्यमान महोत्सव वाले भगवान के उस जन्मदिन पर परागशून्यता को प्राप्त वायु भी मन्दता को प्राप्त हो गई । सिंह के बच्चों ने बिजली की गर्जना को धारण किया । सभी ऋतुयें एक ही समय में फूलों के भार वाले वृक्षों के ऊपर आरूढ़ हो गई । इस प्रकार मंगलमय कल्पवासियों के यहाँ घण्टा ध्वनि, ज्योतिषियों के यहाँ सिंहनाद, भवनवासियों के यहाँ शंख ध्वनि और व्यन्तरों के यहाँ दुन्दुभि ध्वनि होने से तीर्थङ्कर के जन्म की सूचना प्राप्त हुई । मंगलमय उसके जन्म से भवन में सात दीपक जलाये गये । इस प्रकार भगवान के जन्म होते ही चतुर्णिकाय के देव द्वारावती में पहुँच गये । इसके बाद जिनेन्द्र भगवान के चरण-युगल के दर्शन के लिये उत्कण्ठित देवताओं के समूह अपने प्रसिद्ध तीव्रवाहनों के द्वारा इन्द्रादि सहित तुरन्त ही उस नगरी मे उपस्थित हो गये । पंचम सर्ग:
इसके बाद इन्द्राणी पवित्र प्रसूति गृह में प्रवेश कर माता शिवादेवी के पास दूसरे मायामयी बालक को सुलाकर त्रिलोकीनाथ भगवान को नमस्कार कर दोनों हाथों से ग्रहण कर