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अध्याय-दो (ख)
सर्गानुसार कथानक
प्रथम सर्ग :
सर्वप्रथम चौबीस तीर्थङ्करों क्रमशः ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु, पुष्पदंत, शीतलदेव, श्रेयांसनाथ, श्रीवासुपूज्य, निमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थु जिनेन्द्र, अरतीर्थङ्कर, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, मिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, महावीर भगवान् को उनके सुलक्षणों से युक्त करते हुए कापस्कार करके सरस्वती नमन, सज्जन प्रशंसा, खल निन्दा करते हुये, मूल कथा प्रारम्भ की
देवताओं के निवास स्थान वाला प्रसिद्ध सुराष्ट्र नामक अत्यन्त रमणीय देश धनधान्य से परिपूर्ण था, जहाँ पर कृषि उत्तम तिलों वाली, स्त्री सुन्दर केशों वाली तथा स्वभाव की मधुरता से युक्त, सर्वत्र सुन्दर तालाब, सुन्दर श्वेत अर्जुन वृक्ष, चारों दिशाओं में फैली गायों के समूह से युक्त तथा सरस्वती नदी के सामीप्य को प्राप्त तथा गोपवसतिकाओं से युक्त पृथ्वी को सब ओर से धारण करते थे।
वहाँ पर तरह-तरह के प्रासादों वाली रमणीय द्वारावती (द्वारिका) नाम की प्रसिद्ध नगरी थी । वह नगरी इतनी सुन्दर थी कि जल का स्वामी वरुण भी उसके समान ही अपनी राजधानी बनाने की कल्पना करता था।
जिसमें यदुवंश में वन्दनीय, तिलक के समान “समुद्रविजय” नाम का राजा शासन करता था । सत्य प्रतिज्ञा वाले उस राजा के राज्य में अन्य राजाओं की तीन प्रकार की गतियाँ होती थी उसके चरणों की सेवा, युद्ध में मृत्यु अथवा गहन वन में निवास । इस प्रकार वह राजा अत्यन्त दानशील, शत्रुओं को उखाड फेंकने वाला तथा न्यायप्रिय था।
राज्य की सुव्यवस्था के लिये महाराज समुद्रविजय ने अपने अनुज “वासुदेव” के पुत्र "श्री कृष्ण" को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया । जो कृष्ण बचपन में ही अनेकों विचित्रताओं से युक्त था । पूतना का रक्त पीना, चाणूरमल्ल को दलित करना, गोवर्धन पर्वत उठाना, केशि नामक राक्षस को मारना तथा जो अपनी माता यशोदा के आनन्द को बढ़ाने वाला था । इस प्रकार महाराज समुद्रविजय सब प्रकार के सुखों से युक्त होते हुये भी पुत्र के अभाव में अत्यधिक चिन्तित रहते थे, जिससे पुत्र प्राप्ति के हेतु उन्होंने अनेक व्रतों का सम्पादन किया।