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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् ः एक अध्ययन
प्रेम प्रदर्शन पूर्वक उनकी पूजा करने लगे । इसी बीच कथाक्रम के मध्य में अन्य प्रसंग आ जाते हैं । इसके बाद यादवों की क्रीड़ा का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढगं से प्रदर्शित किया गया है ।
मनुष्यों की मनोवृति को हरण करने वाली कृष्ण की स्त्रियाँ बसन्त ऋतु के उस चैत्र बैशाख मास में पति की आज्ञा पाकर वृक्षों और लताओं से रमणीय वनों में नेमिनाथ के साथ क्रीड़ा करने लगी । जलक्रीड़ा का संयोग श्रृंगारिक वर्णन बड़ा ही मनोरम बन पड़ा है । क्रमशः बसन्त वर्णन एवं ग्रीष्म वर्णन हुआ है।
तदनन्तर परिजनों के द्वारा लाये हुये वस्त्राभूषणों से विभूषित स्त्रियों ने सन्तुष्ट होकर वस्त्रों से भगवान् का शरीर पोंछा और उन्हें वस्त्र पहनाये ।
तदनन्तर जो तत्काल गीला वस्त्र छोड़ा था उसे निचोड़ने के लिए उन्होंने विलासपूर्वक मुद्रा में कटाक्ष चलाते हुये कृष्ण की प्रेम-पात्रा एवं अनुपम सुन्दरी जाम्बवती को प्रेरित किया । भगवान् का अभिप्राय समझ शीघ्रता से युक्त नाना प्रकार के वचन बनाने में पटु जाम्बवती बनावटी क्रोध से विकारयुक्त कटाक्ष चलाने लगी । उसका ओष्ठ कम्पित होने लगा और हाव-भाव पूर्वक भौंहे चलाकर नेत्रों से भगवान् की ओर देखकर कहने लगी । जिनके शरीर और मुकुट मणियों की प्रभा करोड़ों सर्पों के मणियों के कान्तिमण्डल से दूनी हो जाती है, जो महानागशैय्या पर आरूढ़ हो जगत् में प्रचण्ड आवाज से आकाश को व्याप्त करने वाला शंख बजाते हैं, जो जल के समान नीली आभा को धारण करने वाले हैं, समस्त राजाओं के स्वामी हैं तथा जिनकी अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं वें मेरे स्वामी हैं, वे भी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं देते फिर आप कोई विचित्र पुरुष जान पड़ते हैं जो मेरे लिये भी गीला वस्त्र निचोड़ने का आदेश दे रहे हैं ।
जाम्बवती के वचन सुन भगवान् नेमिनाथ ने हँसते हुए कहा कि तूने राजा कृष्ण के जिस पौरुष का वर्णन किया है, संसार में वह कितना कठिन है। इस प्रकार कहकर वे वेग से नगर की ओर गये और शीघ्रता से महल में घुस गये । वे लहराते हुये सर्पों की फणाओं से सुशोभित श्रीकृष्ण की विशाल नागशैय्या पर चढ़ गये । उनके सारंग धनुष को दूना कर प्रत्यंचा से युक्त कर दिया और उनके पांचजन्य शंख को जोर से फूँका। शंख के उस भयंकर से दिशाओं के मुख, समस्त आकाश, पृथ्वी आदि सभी चीजें व्याप्त हो गयी । अत्यधिक मदको धारण करने वाले हाथियों ने क्षुभित होकर जहाँ-तहाँ अपने बन्धन के खम्भे तोड़ दिये। घोड़े बन्धन तुड़ाकर हिनहिनाते हुये नगर में इधर-उधर दौड़ने लगे । महलों के शिखर और किनारे टूट-टूट कर गिरने लगे । श्रीकृष्ण ने अपनी तलवार खींच ली । समस्त सभा क्षुभित हो उठी और नगरवासी जन प्रलयकाल के आने की शंका से अत्यंत आकुलित होते हुये, भय को प्राप्त हो गये । जब कृष्ण को विदित हुआ कि यह तो हमारे ही शंख का शब्द है
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