Book Title: Nemi Nirvanam Ek Adhyayan
Author(s): Aniruddhakumar Sharma
Publisher: Sanmati Prakashan

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Page 119
________________ नेमिनिर्वाण की कथावस्तु १०५ सुशोभित प्रसिद्ध राजाओं से घिरे एवं मदोन्मत हाथी के समान सुन्दर गति से युक्त युवा नेमिकुमार बलदेव तथा नारायण आदि यादवों से भरी हुई कुसुमविचित्रा नामक सभा में गये। राजाओं ने अपने अपने आसन छोड़ सम्मुख जाकर उन्हें नमस्कार किया । श्रीकृष्ण ने भी आगे जाकर उनकी अगवानी की । तदनन्तर श्रीकृष्ण के साथ में उनके आसन को अलंकृत करने वाले सभी के बीच सभ्य जनों की कथारूप अमृत का पान करने वाले एवं अत्यधिक शूरवीरता और शारीरिक विभूति से युक्त अनेक राजा जिनकी उपासना कर रहे थे तथा अपनी कान्ति से जिन्होंने सबको आच्छादित कर दिया था, ऐसे नेमिकुमार कृष्ण के साथ क्षणभर क्रीड़ा करते रहे । तदनन्तर बलवानों की गणना छिड़ने पर कोई अर्जुन की, कोई युद्ध में स्थित रहने वाले यतिष्ठिर की, किसी ने पराक्रमी भीम आदि की प्रशंसा की, किसी ने कहा-बलदेव सबसे की क बलवान् है, किसी ने गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले श्रीकृष्ण को सबसे अधिक बलवान् कहा । इस प्रकार कृष्ण की सभा में आगत राजाओं की तरह-तरह की वाणी सुनकर लीलापूर्ण दृष्टि से भगवान् नेमिनाथ की ओर देखकर बलदेव ने कहा कि तीनों जगत् में इनके समान दूसरा बलवान् नहीं है । ये अपनी हथेली से पृथ्वी तल को उठा सकते है । समुद्र को शीघ्र ही दिशाओं में फेंक सकते हैं और गिरिराज को अनायास ही कम्पायमान कर सकते हैं । यथार्थ रूप में ये जिनेन्द्र हैं । इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है । इस प्रकार बलदेव के वचन सुन श्रीकृष्ण ने पहले तो भगवान् की ओर देखा और तदनन्तर मुस्काराते हुये कहा कि हे भगवन्! यदि आपके शरीर का ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहुबल में उनकी परीक्षा क्यों न कर ली जाये । भगवान् ने कुछ खास ढंग से मुख ऊपर उठाते हुए श्री कृष्ण से कहा कि मुझे इस विषय में मल्लयुद्ध की क्या आवश्यकता है । हे अग्रजो, यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो सहसा इस आसन से मेरे इस पैर को विचलित कर दीजिए । श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर भुजनल से जिनेन्द्र भगवान् को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए पैर का चलाना तो दूर रहा, नखरूपी चन्द्रमा को धारण करने वाली पैर को एक अंगुली तक को चलाने में भी समर्थ नहीं हो सके । उनका समस्त शरीर पसीन से व्याप्त हो गया और मुख से लम्बी-लम्बी साँसे निकलने लगी । अन्त में उन्होंने अहंकार छोड़कर स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि हे देव ! आपका बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है । उसी समय इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया और वह तत्काल ही देवों के साथ आकर भगवान् की स्तुति, पूजा तथा नमस्कार कर अपने स्थान पर चला गया । इस प्रकार अपने बल पर शंकित श्रीकृष्ण नाथ के बल से परास्त हो अपने महल को चले गये । श्रीकृष्ण के मन में यह शंका घर कर गयी कि नेमिनाथ के बल का कोई पार नहीं है अतः इनके रहते हये हमारा राज्य शासन स्थिर रहेगा या नहीं । उस समय से श्रीकृष्ण उत्तम अमूल्य गुणों से युक्त जिनेन्द्र रूपी उन्नत चन्द्रमा की बड़े आदर से सेवा-सुश्रषा करते हुने

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