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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् एक अध्ययन
धारक थे तथा एक हजार आठ लक्षणों से युक्त नीलकमल के समान सुन्दर शरीर को धारण कर रहे थे । जिन बालक ने अपनी कान्ति के द्वारा प्रसूतिका गृह के भीतर व्याप्त मणिमय दीपकों के कान्ति समूह को कई गुणा अधिक कर दिया था। तीनों लोकों में हर्ष छा गया जन्म महोत्सव मनाने के लिये देवों की सात प्रकार की सेना सौर्यपुर आई । उस समय समस्त विद्युतकुमारियों में प्रधान रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और रुचकोज्ज्वला तथा दिक्कुमारियों में प्रधान विजय आदि चार देवियाँ विधिपूर्वक भगवान् का जातकर्म कर रही थी। भगवान के जन्मोत्सव के पूर्व ही कुबेर ने सौर्यपुर की अद्भुत शोभा बना रखी थी ।
तदनन्तर सज्जनों का सखा और मर्यादा को जानने वाला इन्द्र नगर में प्रवेश कर शिवादेवी के महल के समीप खड़ा हो गया और वहीं से उसने आदर से युक्त पवित्र एवं चंचलता रहित इन्द्राणी को नवजात बालक को लाने का आदेश दिया। पति की आज्ञानुसार इन्द्राणी ने प्रसूतिकागृह में प्रवेश किया। उस समय आदर से भरी इन्द्राणी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी । वहाँ उसने यत्नपूर्वक जिन माता को प्रणाम कर मायामयी निद्रा में सुला दिया तथा देवमाया से एक दूसरा बालक बनाकर उनके समीप लिटा दिया । तदनन्तर इन्द्राणी ने कोमल हाथों से जिन बालक को उठाकर अपने स्वामी इन्द्र के लिये दे दिया और देवों के राजा इन्द्र ने सिर झुकाकर जिन बालक को प्रणाम कर दोनों हाथों मे उठा ऐरावत हाथी पर विराजमान कर सुमेरु पर्वत की ओर ले चला । इसी प्रसंग में ऐरावत हाथी का वर्णन किया गया है । बड़ा ही हर्षमय वातावरण है चारों ओर नृत्य, नाद, भैरियाँ, नगाड़े सुनाई दे रहे हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार की नृत्य कलायें हो रही हैं तथा नाना प्रकार की सुगन्ध से युक्त नाना प्रकार के पटवास, धूपों के समूह, उत्तमोत्तम पुष्पों के समूह आकाश तल को व्याप्त कर रहे थे । उस समय सुन्दर वायु अपनी उत्कृष्ट सुगन्ध से युक्त सभी दिशाओं के मुख को अत्यन्त सुगन्धित कर रही थी । इस प्रकार हर्षमय वातावरण में जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक प्रारम्भ हुआ । इसके बाद इन्द्र द्वारा भगवान् का स्तवन किया गया । देवों द्वारा शंखादि वाद्यन्त्रों का वादन और भगवान् की परिचर्या का वर्णन किया गया है। कथा के मध्य में यादवों के नष्ट होने का मिथ्या समाचार, आगे क्रमशः समुद्रविजय आदि के द्वारा समुद्र की शोभा का अवलोकन है । कृष्ण ने अष्टम भक्तिकर पंचपरमेष्ठी का ध्यान किया । इन्द्र की आज्ञा से गौतम देव ने समुद्र को शीघ्र ही दूर हटा दिया और उस स्थल पर कुबेर ने द्वारिका नगरी की रचना कर दी । श्रीकृष्ण को नारायण और बलदेव को बलभद्र स्थापित कर कुबेर अपने स्थान की ओर चला गया। आगे द्वारिकावती का सुन्दर वर्णन हुआ है ।
मध्य में नारायण वर्णन, सत्यभामा गर्भ वर्णन, कृष्ण वर्णन, रुकमणी विलाप, पाँडवों की उत्पत्ति, कौरवों के साथ युद्ध, कौरव-पाण्डव वर्णन आदि हैं ।
अथानन्तर एक दिन कुबेर के द्वारा भेजे हुए वस्त्र, आभूषण, माला और विलेपन से