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नेमिनिर्वाण की कथावस्तु
१०३ क्रीड़ा कर रहा था । नौवें स्वप्न में कमल लोचन शिवादेवी ने अत्यधिक सुगन्धित जल से भरे हुये कलश देखे जिनके मुख पर कमल रखे थे जो उत्तम स्वर्ण से निर्मित थे । उसके बाद दसवें स्वप में बड़ा सरोवर देखा, जो शुभ जल से भरा हुआ कमलों से सुशोभित उत्तम राजहंस के मुक्त मन को हरण करने वाला था । ग्यारहवें स्वप्न में एक ऐसा महासागर देखा जो उठती हुई ऊँची लहरों से भंगुर मूगों, मोती, मणि और पुष्पों से सुशोभित था । बारहवें स्वप्न में लक्ष्मी का आसनभूत एक ऐसा सिंहासन देखा जिसको नखों के अग्रभाग एवं दाढों से मजबूत दृष्टि से देदीप्यमान और चमकती हुई सटाओं से युक्त सिंह धारण किये हुए थे। तेरहवें स्वप में उसने आकाश में एक ऐसा विमान देखा जो भिन्न-भिन्न प्रकार के बेलबूटों से युक्त ध्वजाओं के अग्रभाग से चंचल और लटकती हुई मोतियों की मालाओं से उज्ज्वल था । चौदहवें स्वप्न में उसने नागेन्द्र का ऐसा विशाल देदीप्यमान भवन देखा जो पाणाओं पर स्थित मणियों के प्रकाश पृथ्वी के अन्धकार को नष्ट करने वाली कन्याओं के मधुर संगीत से व्याप्त था । पन्द्रहवें स्वप में शिवादेवी ने उत्तम रत्नों की एक ऐसी राशि देखी जो पद्मरागमणि तथा चमकते हीरों के सहित, उत्तम मणियों की बड़ी बड़ी शिलाओं से व्याप्त, इन्द्र धनुष से दिशाओं के अग्रभाग को रोकने वाली तथा आकाश का स्पर्श कर रही थी । सोलहवें और अन्तिम स्वप्न में शिवादेवी ने ऐसी अग्नि देखी जो शिखाओं से भयंकर, रात्रि के समय अपनी उज्ज्वल किरणों से दिशाओं के अग्रभाग को प्रकाशित करने वाली थी । इस प्रकार स्वप्नों के बाद कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन देवों के आसनों को कम्पित करते हुए भगवान् ने स्वर्ग से च्युत हो सफेद हाथियों का रूप धारणकर माता के मुख में प्रवेश किया ।
राजा समुद्रविजय ने स्वप्नों का फल बताते हुये कहा कि हे सुन्दर जंघाओं वाली प्रिये! यहाँ तेरे स्वपों का फल क्या कहा जाय ? क्योंकि तू तीर्थङ्कर की माता है, तुम्हारे तीर्थङ्कर पुत्र उत्पन्न होगा । इस प्रकार राजा ने क्रमशः उन देखे गये स्वप्नों के फल को रानी को समझाया ।
तदनन्तर इन्द्र की आज्ञा और अपनी भक्ति के भार से कुबेर ने स्वयं आकर.भगवान् के माता-पिता का अच्छी तरह से अभिषेक किया तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से उसकी पूजा की । जिस प्रकार आकाश की लक्ष्मी अपने निर्मल उदर में चन्द्रमा को धारण करती है, उसी प्रकार भगवान् की माता शिवादेवी ने प्रसिद्ध दिक्कुमारियों-देवियों के द्वारा पहले से ही शुद्ध किये हुए अपने निर्मल उदर में जगत् के कल्याण के लिये सर्वप्रथम उस गर्भ को धारण किया, जो उठती हुई प्रभा से युक्त था। शिवादेवी का गूढ गर्भ वृद्धि को प्राप्त हुआ । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी की शुभ तिथि में रात्रि के समय जब चन्द्रमा का चित्रा नक्षत्र के साथ संयोग था, समस्त शुभ ग्रहों का समूह जब यथायोग्य उत्तम स्थानों पर स्थित था, तब शिवादेवी ने समस्त जगत् को जीतने वाले अतिशय सुन्दर पुत्र को उत्पन्न किया, जो तीन ज्ञान रूपी उज्ज्वल नेत्रों