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नेमिनिर्वाण की कथावस्तु की देव लोग रक्षा करते थे । रलमाला, गदा, हल और मूसल ये चार देदीप्यमान महारत्न बलदेवप्रभु के थे । रुक्मिणी, सत्यभामा, सती, जामवन्ती, सुसीमा, लक्ष्मणा, गान्धारी, सप्तमी, गौरी और प्रिया पद्मावती ये आठ देवियाँ श्रीकृष्ण की पटरानी थी । इनको मिलाकर सब सोलह हजार रानियों थी और बलदेव के सब मिलाकर अभीष्ट सुख देने वाली आठ हजार रानियाँ थी । ये दोनों भाई इन रानियों के साथ देवों के समान सुख भोगते हुये परम प्रीति को प्राप्त हो रहे थे । इस प्रकार पूर्वजन्म में किये हुये अपने पुण्य कर्म के उदय से पुष्कल भोगों को भोगते हुये श्रीकृष्ण का समय सुख से व्यतीत हो रहा था ।
किसी एक समय शरद ऋतु में सब अन्तःपुर के साथ मनोहर नाम के सरोवर में सब लोग मनोहर जलकेलि कर रहे थे । वहाँ पर जल उछालते समय भगवान् नेमिनाथ और सत्यभामा के बीच चतुराई से भरा हुआ मनोहर वार्तालाप हुआ । सत्यभामा ने कहा कि आप मेरे साथ अपनी प्रिया के समान क्रीडा क्यों करते हैं? उसके उत्तर में नेमिराज ने कहा कि क्या तुम मेरी प्रिया (इष्ट) नहीं हो? सत्यभामा ने कहा कि यदि मैं आपकी प्रिया (स्त्री) हूँ तो फिर आपके भाई (श्रीकृष्ण) किसके पास जायेंगे? नेमिनाथ ने उत्तर दिया कि वे कामिनी के पास जायेगें? सत्यभामा ने कहा कि सुनें तो सही वह कामिनी कौन सी है, उत्तर में नेनिनाथ ने कहा कि क्या तुम नहीं जानती? अच्छा अब जान जाओगी । सत्यभामा ने कहा कि सब लोग आपको सीधा कहते हैं पर आप तो बड़े कुटिल हैं । इस प्रकार जब विनोद करते करते स्नान समाप्त किया तब नेमिनाथ ने सत्यभामा से कहा कि हे नीलकमल के समान नेत्रों वाली,! तू मेरा यह सान का वस्त्र ले । सत्यभामा ने कहा कि मैं इसका क्या करूं? नेमिनाथ ने कहा कि इसे धो डाल । तब सत्यभामा कहने लगी कि क्या आप श्रीकृष्ण है? वह श्रीकृष्ण जिन्होंने कि नागशैय्या पर चढ़कर शारङ्ग नाम का दिव्य धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिग्दिगन्त को पूर्ण करने वाला शंखपूरा था? क्या आपमें वह साहस है यदि नहीं है तो आप मुझे वस्त्र धोने की बात क्यों कहते हो? नेमिनाथ ने कहा कि “मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूगरौं” इतना कह कर वे गर्व से प्रेरित हो नगर की ओर चल पड़े और वह आश्चर्यपूर्ण कार्य करने के लिये आयुधशाला में जा घुसे । वहाँ वे नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशैय्या पर चढ़ गये । बार बार स्फालन करने से जिसकी डोरी रूपी लता बड़ा शब्द कर रही है ऐसा धनुष उन्होंने चढ़ा दिया ओर दिशाओं के अन्तराल को रोकने वाला शंख फूंक दिया । उस समय उन्होंने अपने आपको महान् उन्नत समझा सो ठीक ही है क्योंकि राग और अहंकार का लेशमात्र भी प्राणी को अवश्य ही विकृत बना देता है ।
जिस समय आयुधशाला में यह सब हुआ था उस समय श्रीकृष्ण कुसुमचित्रा नाम की सभाभूमि में विराजमान थे वे सहसा ही यह आश्चर्यपूर्ण काम सुनकर व्यग्र हो उठे उनका मन अत्यन्त व्याकुल हो उठा । बड़े आश्चर्य के साथ उन्होंने किंकरों से पूछा कि “यह क्या है?"