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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन कानों के आभरणों में पैर फंस जाने से लटक गये थे, जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानों वे अपना चिरपरिचित स्थान छोड़ना नहीं चाहते हों और इसीलिये कानों के अग्रभाग का सहारा ले नीचे की और मुख लटक गये हों । बड़ी चपलता से चलने वाले कितने ही योद्धा अपनी रक्षा के लिये बाँये हाथ से भाला लेकर शस्त्रों वाली दाहिनी भुजा से शत्रुओं को मार रहे थे । आगम में जो मनुष्य का कवलीघात नाम का अकाल मरण बतलाया गया है उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई थी तो उस युद्ध में ही हुई थी, ऐसे युद्ध के मैदान के विषय में कहा जाता है । इस प्रकार दोनों सेनाओं में चिरकाल तक तुमुल युद्ध होता रहा जिससे यमराज भी खूब सन्तुष्ट हो गया था । तदनन्तर जिस प्रकार किसी छोटी नदी के जल को महानदी के प्रवाह का जल दबा देता है उसी प्रकार सिंह हाथियों के समूह पर टूट पड़ता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण क्रुद्ध होकर तथा सामन्त राजाओं की सेना के समूह साथ लेकर शत्रुओं को मारने के लिये उद्यत हो गये - शत्रु पर टूट पड़े। जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अंधकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण को देखते ही शत्रुओं की सेना विलीन हो गयी, उसमें भगदड़ मच गई। यह देख, क्रोध से भरा जरासन्ध आया और उसने रुक्ष दृष्टि से देखकर अपने पराक्रम से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने वाला चक्ररल श्रीकृष्ण की ओर चलाया परन्तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर श्रीकृष्ण की दाहिनी भुजा पर ठहर गया । तदनन्तर वही चक्र लेकर श्रीकृष्ण ने मगधेश्वर-जरासन्ध का सिर काट डाला । उसी समय श्रीकृष्ण की सेना में जीत के नगाड़े बजने लगे और आकाश से सुगन्धित जल की बूंदो के साथ-साथ कल्पवृक्षों के फूल बरसने लगे । चक्रवर्ती श्रीकृष्ण ने दिग्विजय की भारी इच्छा से चक्ररल आगे कर बड़े भाई बलदेव तथा अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया । जिनका उदय बलवान है ऐसे श्रीकृष्ण ने मागध आदि प्रसिद्ध देवों को जीतकर अपना सेवक बनाया और उनके द्वारा दिये हुए श्रेष्ठ रत्न ग्रहण किये । लवण समुद्र सिन्धु नदी और पैरों के नखों की कान्ति का म्लेच्छ राजाओं से नमस्कार कराकर उनसे अपने पैरों के नखों की कान्ति का भार उठवाया । तदनन्तर विजया पर्वत, लवण समुद्र और गंगा नदी के मध्य में स्थित म्लेच्छ राजाओं को विद्याधरों के ही साथ जितेन्द्रिय श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही वश में कर लिया । इस प्रकार आधे भारत के स्वामी होकर श्रीकृष्ण ने जिसमें बहुत ऊँची पताकायें फहरा रही हैं और जगह-जगह तोरण बाँधे गये हैं ऐसी द्वारावती नगरी में बड़े हर्ष के साथ प्रवेश किया । प्रवेश करते ही देव ओर विद्याधर राजाओं ने उन्हें तीन खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती मानकर उनका बिना कुछ कहे सुने ही अपने आप राज्याभिषेक किया ।
श्रीकृष्ण की एक हजार वर्ष की आयु थी, दस धनुष की ऊँचाई थी, अतिशय सुशोभित नीलकमल के समान उनका वर्ण था और लक्ष्मी से आलिंगित उनका शरीर था । चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष-दण्ड और नन्दक नाम का खड्ग-यें उनके सात रत्न थे । इन सभी रनों