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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन प्रकट हुए प्रलयकाल के लहराते समुद्र के समान चंचल है, ऐसा वह जरासन्ध यादव लोगों का शीघ्र ही नाश करने के लिए तत्काल चल पड़ा । बिना कारण ही युद्ध से प्रेम रखने वाले नारद जी को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने शीघ्र ही आकर श्रीकृष्ण से जरासन्ध के कोप का समाचार कह दिया। “शत्रु चढ़कर आ रहा है" यह समाचार सुनकर श्रीकृष्ण को कुछ भी आकुलता नहीं हुई। उन्होंने नेमिकुमार के पास जाकर कहा कि आप इस नगर की रक्षा कीजिए सुना है कि मगध का राजा जरासन्ध हम लोगों को जीतना चाहता है सो मैं उसे आपके प्रभाव से घुण के द्वारा खाये हुए जीर्ण वृक्ष के समान शीघ्र ही नष्ट किये देता हूँ। श्रीकृष्ण के वीरतापूर्ण वचन सुनकर जिसका चित्त प्रसन्नता से भर गया है जो कुछ-कुछ मुस्करा रहे हैं, जिनके नेत्र मधुरता से ओत-प्रोत हैं ऐसे नेमिनाथ को अवधिज्ञान था । अतः उन्होंने निश्चय कर लिया था कि विरोधियों के ऊपर हम लोगों की विजय निश्चित रहेगी। उन्होंने दाँतों की देदीप्यमान कान्ति को प्रकट करते हुए “ओम्" शब्द कह दिया अर्थात् द्वारावती का शासन स्वीकृत कर लिया । जिस प्रकार जैनवादी अन्यथानुपपत्ति रूप लक्षण से सुशोभित पक्ष आदि के द्वारा ही अपनी जय का निश्चय कर लेता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने भी नेमिनाथ की मुस्कान आदि से अपनी विजय का निश्चय कर लिया था।
श्रीकृष्ण और बलदेव शत्रुओं को जीतने के लिए जय विजय, सारण, अंगद, देव, उद्धव, सुमुख, पद्म, जरा, सुकृष्टि, पाँचों पांडव, सत्यक, द्रुपद, समस्त यादव, विराट, अपरिमित सेनाओं से युक्त धृष्टार्जुन, उग्रसेन, युद्ध का अभिलाषी चगर? , विदुर तथा अन्य राजाओं के साथ उद्यत होकर युद्ध के लिये तैयार हुये और वहाँ से चलकर कुरुक्षेत्र में जा पहुंचे । उधर युद्ध की इच्छा रखने वाला जरासन्ध भी अपनी गरमी (अहंकार) प्रकट करने वाले भीष्म, कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा, रूक्म, शल्य, वृषसेन, कृप, कृपवर्मा, रुदिर, इन्द्रसेन, राजा जयद्रथ, हेमप्रभ, पृथ्वी का नाथ दुर्योधन, दुःशासन, दुर्मिषण, दुर्जय, राजा कलिंग, भगदत्त तथा अन्य अनेक राजाओं के साथ कृष्ण के सामने आ पहुँचा उस समय श्रीकृष्ण की सेना में युद्ध की भेरियाँ बज रही थी । सो जिस प्रकार कुसुम्भ रंग वस्त्र को रंग देता है, उसी प्रकार उन भेरियों के उठते हुये शब्द ने शूरवीरों के चित्त को रगंवा दिया था। उसी प्रकार उन भेरियों का शब्द सुनकर कितने ही राजा लोग देवताओं की पूजा करने लगे और कितने ही गुरुओं के पास जाकर अहिंसा आदि व्रत धारण करने लगे । युद्ध के सम्मुख हुये कितने ही राजा अपने भृत्यों से कह रहे थे कि तुम लोग कवच धारण करो, पैनी तलवार लो, धनुष चढ़ाओ और हाथी तैयार करो । घोड़ों पर जीन कसकर तैयार करो, स्त्रियाँ, अधिकारियों के लिये सौपों, रथों में घोड़े जोत दो, निरन्तर भोग उपभोग में वस्तुओं का सेवन किया जाये, बन्दी तथा मागध लोग अपने पराक्रम से कितने ही शत्रुओं पर जमी हुई ईर्ष्या से, कितने ही यश पाने की इच्छा से, कितने ही शूरवीरों की गति पाने के लोभ से, कितने ही अपने वंश के अभिमान से, कितने