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नेमिनिर्वाण की कथावस्तु
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ही युद्ध सम्बन्धी अन्य-अन्य कारणों से प्राणों का नाश करने के लिये तैयार हो गये थे । उस समय श्रीकृष्ण भी बड़ा गर्व कर रहे थे। सब आभूषण पहने थे और शरीर पर केशर लगाये ये थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानों सिन्दूर लगाये हुये हाथी हो । "आपकी जय हो” "आप चिरंजीवी रहें" इस प्रकार बन्दीजन उनका मंगलपाठ पढ़ रहे थे, जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो चातकों की सुन्दर ध्वनि से युक्त नवीन मेघ ही हो। उन्होंने सज्जनों के द्वारा धारण की हुई पवित्र सुवर्णमय झारी के जल से आचमन किया, शुद्ध जल से शीघ्र ही पूर्ण जलांजलि दी और फिर गन्ध, पुष्प आदि द्रव्यों के द्वारा विघ्नों का नाश करने वाले स्वामी रहित (जिनका कोई स्वामी नहीं) तथा भव्य जीवों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये कल्पवृक्ष के समान श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति पूर्वक पूजा की, उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर चारों ओर गुरुजनों और सामन्तों को अथवा प्रामाणिक सामन्तों को रखकर स्वंय ही शत्रु को नष्ट करने के लिये उसके सामने चल पड़े । तदनन्तर कृष्ण की आज्ञा से अनुराग रखने वाले प्रशंसनीय परिचारकों ने यथायोग्य रीति से सेना की रचना की । जरासन्ध भी संग्रामरूपी युद्धभूमि के बीच में आ बैठा और कठोर सेनापतियों के द्वारा सेना की योजना करवाने लगा । इस प्रकार जब सेनाओं की रचना ठीक-ठीक हो गई तब युद्ध के नगाड़े बजने लगे । शूरवीर धनुषधारियों के द्वारा छोड़े
बाणों से आकाश भर गया और उसने सूर्य की फैलती हुई किरणों की सन्तति को रोक दिया, ढक दिया । “सूर्य अस्त हो गया है” इस भय की आशंका से मोहवश चकवा चकवी परस्पर बिछड़ गये । अन्य पक्षी भी शब्द करते हुये घोंसले की ओर जाने लगे। इस समय युद्ध के मैदान में इतना अन्धकार हो गया था कि योद्धा परस्पर एक दूसरे को देख नहीं सकते थे । परन्तु कुछ ही समय बाद क्रुद्ध हुये मदोन्मत्त हाथियों के दांतों की टक्कर से उत्पन्न हुई अग्नि के द्वारा जब वह अन्धकार नष्ट हो जाता और सब दिशायें साफ-साफ दिखने लगती तब समस्त शस्त्र चलाने में निपुण योद्धा फिर से युद्ध करने लगते थे । विक्रम रस से भरे योद्धाओं ने क्षणभर में खून की नदियाँ बहा दी । भयंकर तलवार की धार से जिनके आगे के दो पैर कट गये हैं, ऐसे घोड़े उन तपस्वियों की गति को प्राप्त हो रहे थे, जोकि तप धारण कर उसे छोड़ देते हैं । जिनके पैर कट गये हैं ऐसे हाथी इस प्रकार पड़ गये थे मानो प्रलयकाल की महावायु से जड़ से उखाड़कर नीले रंग के बड़े-बड़े पहाड़ ही पड़ गये हैं। शत्रु भी जिनके साहसपूर्ण कार्यो की प्रशंसा कर रहे हैं, ऐसे पड़े हुये योद्धाओं के प्रसन्न मुख - कमल स्थल कमल की शोभा धारण कर रहे थे। योद्धाओं ने अपनी कुशलता से परस्पर एक दूसरे के शस्त्र तोड़ डाले थे परन्तु उनके टुकड़ों से ही समीप में खड़े हुये बहुत से लोग मर गये थे। कितने ही योद्धा न ईर्ष्या से, न क्रोध से, न यश से और न फल पाने की इच्छा से युद्ध करते थे किन्तु यह न्याय है ऐसा कहकर युद्ध कर रहे थे। जिनका शरीर सर्वप्रकार से शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो गया है, ऐसे कितने ही वीर योद्धा हाथियों के स्कन्ध से नीचे गिर गये थे, परन्तु