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अध्याय-दो (क) नेमिनिर्वाण की कथावस्तु कथावस्तु का मूल स्रोत :
काव्य शास्त्रियों की ऐसी मान्यता रही है कि महाकाव्य की कथावस्तु किसी ऐतिहासिक कथावस्तु पर आधारित अथवा सज्जनाधित होना चाहिए । शास्त्रकारों की इस मान्यता के अनुसार नेमि-निर्वाण के मूल स्रोत के विषय में विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है ।
श्री नेमिनाथ के चरित्र के कुछ सूत्र सबसे पहले आचार्य यतिवृषभ द्वारा लिखित 'तिलोयपण्णत्ती' नामक ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं । यद्यपि यह ग्रन्थ 'करणानुयोग' का है, इसलिए इसमें मुख्यरूप से चतुर्गति, युग-परिवर्तन आदि का ही विवेचन होता है, तथापि दिगम्बर जैन साहित्य के श्रुताङ्ग से सम्बन्ध रखने के कारण इसमें ६३ शलाकापुरुषों का भी संक्षिप्त वर्णन हुआ है । तिलोयपण्णत्ती में प्रतिपादित तीर्थङ्कर नेमिनाथ के वर्णन को वाग्भटकृत नेमिनिर्वाण महाकाव्य के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि इसमें नेमिनाथ के माता-पिता, जन्मस्थान, केवलज्ञान, मोक्षप्राप्ति का दिग्दर्शन मात्र हुआ है । इसमें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के पूर्ववर्ती भव, जन्मतिथि, तीर्थकाल, आयु, शरीर की ऊँचाई, चिह्न, वैराग्य उत्पत्ति का हेतु, दीक्षा स्थान, छद्मस्थ काल, केवलज्ञान प्राप्ति की तिथि एवं स्थान, इन्द्र द्वारा समवसरण की संरचना, समवसरण का क्षेत्रफल, केवलिकाल, गणधर, गणों में मुनि एवं आर्भिकाओं की संख्या तथा तीर्थकाल का ही निर्देश हुआ है, जिनका महाकाव्य की कथावस्तु में कोई महत्त्व नहीं है । भले ही नेमिनाथ के चरित्र के बीज तिलोयपणणती में विद्यमान हों, परन्तु इसे नेमिनिर्वाण का स्रोत नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें उनके जीवन की किसी भी घटना का वर्णन नहीं किया गया है । उत्तरपुराण में वर्णित नेमिनाथचरित :
श्री कृष्ण तथा होनहार नेमिनाथ तीर्थडर के पुण्य से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर नगरी की रचना की । जिसमें सबसे पहले उसमें विधिपूर्वक मंगलों का मांगलिक स्थान और एक हजार शिखरों से सुशोभित देदीप्यमान एक बड़ा जिनमन्दिर बनाया। फिर वा, कोट, परिखा, गोपुर तथा अट्टालिका आदि से सुशोभित पुण्यात्मा, जीवों से युक्त मनोहर नगरी बनवाई । समुद्र अपनी बड़ी-बड़ी तरंगरूपी भुजाओं से उस नगरी के गोपुर का आलिंगन करता था, वह नगरी अपनी दीप्ति से देवपुरी की हँसी करती थी और द्वारावती उसका नाम था । जिन्हें लक्ष्मी कटाक्ष उठाकर देख रही थी ऐसे श्रीकृष्ण ने पिता वसुदेव तथा बड़े भाई बलदेव के साथ उस नगरी में प्रवेश किया और यादवों के साथ सुख से रहने लगे। जो आगे चलकर १. 'इतिहासोद्भवं वृतमन्यद् वा सज्जनाश्रितम्।' साहित्यदर्पण, ६/३८ २. द्रष्टव्य - तिलोयपण्णत्ती, चउत्यो महाधियारो।