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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन इसी प्रकार वाग्भट का कार्यकाल अन्य प्रमाणों से भी यही सिद्ध किया जा सकता है। प्रभावकचरित में वाग्भट के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है -
अथास्ति वाहडो नाम धनवान् धार्मिकाग्रणीः । गुरुपादान् प्रणम्याथ चक्रे विज्ञापनामसौ ।। आदिश्यतामतिश्लाघ्यं कृत्यं यत्र धनं व्यये । प्रभुराहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्ययः ।। आदेशानंतरं तेनाकार्यत श्रीजिनालयः । हेमाद्रिधवल स्तुंगो, दीप्यत्कुम्भमहामणिः ।। श्री माता वर्षमान स्याबीभरद्विम्बुमतमम् । यत्तेजसा जिताश्चन्द्र (चन्द्र) कान्तमणिप्रभाः ।। शतैकादशके साष्टसप्ततौ विक्रमार्कतः । वत्सराणां व्यतिक्रान्ते श्रीमुनिचन्द्रसूरयः।।। आराधनाविधिश्रेष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनम् । शमपीयूषकल्लोलप्लुतास्ते त्रिदिवं ययुः ।। वत्सरे तत्र चैकेन पूर्णे श्रीदेवसूरिभिः ।श्री वीरस्य प्रतिष्ठां स वाहडो कारयत्सुदा ।।
इसका यही अभिप्राय है कि वाग्भट ११२२ ई० (११७९ वि०सं०) के हैं और उनका नाम वाहड रह चुका है जिसका संस्कृत रूपान्तर वाग्भट है।
वाग्भट एक धनी किंवा परम धार्मिक जैनोपासक थे और उन्होंने जैन मन्दिर की स्थापना में अपने धन का सद्व्यय किया था ।
प्रभावक चरित की ये पंक्तियाँ भी वाग्भट के उपर्युक्त कार्यकाल की ही पुष्टि करती हैं - अणहिल्लपुरं प्रापक्षमापः प्राप्त जयोदयः । महोत्सवप्रवेशस्य गजारूढसुरेन्द्रवत् ।। वाग्भटस्य विहारं सादृशेतद्यसायनम् । अन्येयुः वाग्भटामात्यं धर्मात्यन्तिकवासनः ।। अपृच्छतार्हताचारोपदेष्टारं गुरुं नृपः ।श्रीमद्वाग्भट-देवोऽपि जीर्णोद्धारमकारयत ।। शिखीन्दुरवि वर्षे (१२१३) च ध्वजारोपं व्यधापयत ।।
अर्थात् विक्रम संवत् १२१३ (१९५६ ई०) में अमात्य प्रवर वाग्भट ने जैन विहार का जीर्णोद्धार किया और एक ध्वज स्तम्भ की स्थापना की ।
१. वाग्भयालंकार, भूमिका पृ० ४-५