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जैन चरित काव्य : उद्भव एवं विकास ७४. धन्यकुमारचरित' : (महारक सकल कीति)
यह सात सर्गात्मक काव्य है जिसमें धन्यकुमार श्रेष्ठी का चरित गुम्फित किया गया है। ७५. सुकुमाल चरित : (भहारक सकल कीति)
सुकुमाल चरित ९ सगों का काव्य है। इसमें पूर्वभवों का चित्रण करते हुए बताया है कि एक जन्म में लिया गयावर कम-जन्मान्तर तक दुःखदायी होता है। ७६. सुदर्शनचरित' : (भडारक सकल कीति)
इसमें शीलव्रत के पालन करने वाले दृढ़ी, सेठ सुदर्शन का चरित वर्णित है जो ८ सों में विभक्त है। ७७. श्रीपालचरित : (भट्टारक सकल कीति) __इस चरितकाव्य में सात परिच्छेद हैं । इसमें श्रीपाल का कुष्ठी होना, समुद्र में गिरा दिया जाना, शूली पर चढ़ा दिया जाना, आदि परम्परागत घटनाओं का वर्णन है । श्रीपाल कोटिभट्ट कहलाते थे क्योंकि इनमें एक करोड़ योद्धाओं के बराबर बल था। ७८. मल्लिनाथचरित' : (भट्टारक सकल कीति)
यह सात सों में विभक्त, ८७४ श्लोकात्मक काव्य है जिसमें मल्लिनाथ के चरित के साथ साथ ग्राम नगरादि का बड़ा ही रमणीय वर्णन किया गया है। रचयिता : रचनाकाल
उपयुक्त वर्णित सभी काव्यों के रचयिता भट्टारक सकलकीर्ति हैं । विपुलचरितकाव्य प्रणयन की दृष्टि से भट्टारक सकलकीर्ति का स्थान सर्वोत्कृष्ट है । इनके पिता का नाम कर्मसिंह व माता का नाम शोभा था। ये हूंबड जाति के थे और अणहिलपुरपट्टन के रहने वाले थे।६
प्रो० विद्याधर जोहरापुर ने सकलकीर्ति का समय वि० सं० १४५० से १५१० (१३९३-१४५३ ई०) माना है। किन्तु डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इनका काल वि० सं० १४४३-१४९९ (१३८६-१४४२ ई०) सिद्ध किया है। इस प्रकार इनका समय १४वीं शताब्दी का अन्तिम चरण तथा पन्द्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध रहा है। ७९. श्रीधरचरित : (माणिक्य सुन्दर सूरि)
___यह ९ सर्गों का महाकाव्य है । कवि की कल्पना का वैशिष्ट्य आश्चर्यजनक है । श्रीधरचरित काव्य की रचना वि० सं० १४६३ (१४०६ ई०) में की थी। १.हिन्दी अनुवद जैन भारती बनारस १९११ में प्रकाशित २. रावजी सखाराम दोशी सोलापुर, वी०नि० सं० २४५५ में प्रकाशित ३.रावजी सखाराम दोशी सोलापुर, वी०नि० सं० २४५३ में प्रकाशित ४.हस्तलिखित प्रति नया मन्दिर दिल्ली में है ५.जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता १९२२ ई० में प्रकाशित ६.भट्टारक सम्प्रदाय, पृ०-१५८ ७.वही, पृ०-१५८
८.तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-३, पृ०-३२९ ५.चरित्रस्मारक ग्रन्थमाला, पाण्डव पेल, अहमदाबाद वि० सं० २००७ में प्रकाशित १०. द्रष्टव्य - जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग - ६, पृ० - ३६३