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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन रचयिता : रचनाकाल
इसके कर्ता खम्भात निवासी सागंण के पुत्र कवि विक्रम हैं। इनका सम्प्रदाय विवादग्रस्त है।
इस दूतकाव्य की प्राचीनतम प्रति वि० सं० १४७२ की और दूसरी वि० सं० १५१९ की मिली है । अतः कवि को वि० सं० १४७२ से पूर्व मानने में कोई विरोध नहीं है।
प्रेमी जी के मत के अनुसार कवि १३ वीं शती और विनयसागर के अनुसार १४ वीं शती में हुये थे। १३. जैन मेघदूत (मेस्तुंग आचाय)
नेमिनाथ एवं राजीमती के प्रसंग को लेकर यह दूसरा दूतकाव्य है । इसमें कवि ने पहले दूतकाव्य की तरह मेघदूत को समस्यापूर्ति का आश्रय नहीं लिया है। यह नाम साम्य के अतिरिक्त
शैली, रचना, विभाग आदि अनेक बातों से स्वतन्त्र है । इसमें चार सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में क्रमशः ५०, ४९, ५५, ४२ पद्य हैं ।
नेमिनाथ द्वारा पशुओं का चीत्कार सुनना तथा विवाह परित्याग कर मार्ग से ही रेवतक (गिरनार) पर्वत पर मुनिवत् तपस्या करना, राजीमती द्वारा मुर्छित होना, सखियों द्वारा उपचार, राजीमती द्वारा होश में आना, तथा अपने समक्ष उपस्थित मेघ को अपने विरक्त पति का परिचय देकर अपने प्रियतम को रिझाने के लिये दूत के रूप में चुनना तथा अपनी दुःखित अवस्था का वर्णन कर अपना सन्देश सुनाना वर्णित है । सन्देश को सुनकर सखियाँ राजीमती को समझाती हैं कि नेमिनाथ मनुष्य भव को सफल बनाने के लिये वीतरागी हुये हैं। कहाँ मेघ तथा कहाँ तुम्हारा संदेश और कहाँ उनकी वीतरागी प्रवृत्ति, इन सबका मेल नहीं बैठता और न ही अब नेमिनाथ अनुराग की ओर ही प्रवृत्त हो सकते । अन्त में राजीमती शोक त्याग कर नेमिनाथ के पास जाकर साध्वी बन जाती हैं। १४. हरिवंशपुराण (सकलकीर्ति, जिनदास) ___जिनसेन के हरिवंशपुराण के आधार पर रचित इस कृति में ८० सर्ग हैं। इसमें हरिवंश कुलोत्पन २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण तथा उनके समकालीन कौरव पाण्डवों का वर्णन है। रचयिता : रचनाकाल
, इस अंक के प्रथमांश १४ सर्गों की रचना भट्टारक सकलकीर्ति और शेष सर्गों की रचना उनके शिष्य ब्रह्मजिनदास ने की है । इनके समय के सम्बन्ध में विवाद है । डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल इनका जन्म वि० सं० १४४३ (सन् १३८६ ई०) और स्वर्गवास १४९९ मानते हैं । जब कि ज्योतिप्रसाद जैन ने जन्म १४१८ और मृत्यु १४९९ माना है और डा० जोहराकरपुर
१. द्र० जैन साहित्य और इतिहास (नाथूराम प्रेमी) २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-६, पृ०-५४९