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जैन चरित काव्य : उद्भव एवं विकास के शिष्य थे। इनके गुरु विद्यामन्दि ने सुदर्शनचरित की रचना वि० सं० १५१३ (१४५६ ई०) में की थी। उनके शिष्य होने से इनका समय भी ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी ही ठहरता है। विपुलसाहित्य निर्माण और मौलिकता की दृष्टि से इनका विशिष्ट स्थान है । इनकी कुल ३८ रचनायें हैं। ११२. तुमचरित : (बह अजित महारक)
कार र सर्गालक मल्लकाव्य है जिसमें बैन परम्परा मान्य अठारहवें कामदेव हनुमान और उनकी माता अंवना का चरित्र वर्णित है। इस काव्य का दूसरा नाम अंवसावरित भी है ।। रचयिता : रचनाकाल
हनुमानचरित के रचयिता ब्रह्मअजित भट्टारक हैं। ये सुरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य और भट्टारक विद्यानन्दि के शिष्य थे। इनके पिता का नाम वीरसिंह और माता का नाम पीथा था। इनके गुरु विद्यानन्दि का समय १४३२-१४८१ ई० है । अतः इन्हें भी पन्द्रहवीं शताब्दी में रखा जा सकता है।
षोडश शताब्दी ११३. हरिवंशपुराण' : (श्रुत कीति)
यह वृहद्काव्य रचना है जिसमें ४७ सन्धियाँ हैं । जिसमें २२वें तीर्थडर नेमिनाथ का जीवनचरित वर्णित है । प्रसंगवश इसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियों का संक्षिप्त जीवन परिचय भी आया है। यह ग्रन्थ काव्य, सिद्धान्त, आचार आदि सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।' रचयिता : रचनाकाल
__ हरिवंश पुराण के रचयिता श्रुतकीर्ति हैं जो नन्दीसंघ के बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान हैं । ये भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य और त्रिभुवनकीर्ति के शिष्य थे। श्रुतकीर्ति का समय उनकी रचनाओं के आधार पर वि० सं०१६ वीं शती सिद्ध होता है।.. १४. वनचरित : (लबि सागर) ___ यह राजा पृथ्वीचन्द्र पर रचित प्रसिद्ध आख्यान है । श्वेतांबर परम्परानुसार पृथ्वीचन्द्र प्रत्येकबुद्धों की श्रेणी में आते हैं। रचयिता : रचनाकाल
पृथ्वीचन्द्रचरित के रचयिता लब्धिसागर हैं। ये वृहत्तपागच्छ के उदयसागर के शिष्य थे। इनका समय १५ वी तथा १६ वीं शताब्दी का सन्धिकाल माना जा सकता है क्योंकि इन्हेंने पृथ्वीचन्द्रचरित की रचना वि० सं०१५५८ (१५०१ ई०) में की थी। १.तीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-३, पृ० - ३९१ २. सुदर्शनवरित प्रस्तावना पृ०१७ ३.जिनरलकोश, पृ० ५५९
४. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-६,०-१३९ ५.वही, पृ० १९८
६ जैन सिद्धान्त भवन आरा प लिपि वि० सं०१५५३ की है ७.तीर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-३, पृ०-४३२ ८.वही, पृ० ४३० ९.हीरालाल हसराव जामनगर १९१८ ई० में प्रकाशित १०.जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-६, पृ०-२७४