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१५. जो दु अलैंच रुदं च झाण वज्जदि णिच्चसा। तस्स सामाइयं ठादि इदि केवलिसासणे ॥१२६।।
(मू. अ. ७, गा. ३१) १६. जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणे झायदि णिच्चसा। तस्स सामायिगं ठादि इदि केवलिसासणे ॥१३३॥
(मू. अ. ७, गा. ३२) इन गाथाओं से अतिरिक्त और भी गाथाएँ पाहुड ग्रन्थ में मिलती हैं। जैसे- “जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं ।
जरमरणवाहिबेयण खयकरणं सव्वदुक्खाण" ॥६५॥" यह गाथा मूलाचार में है और दर्शन पाहुड में भी है।
मूलाचार श्री कुन्दकुन्ददेव की कृति है, इसके लिए एक ठोस प्रमाण यह भी है कि उन्होंने 'द्वादशानुप्रेक्षा' नाम से एक स्वतन्त्र रचना की है। मूलाचार में भी द्वादशानुप्रेक्षाओं का वर्णन है । प्रारम्भ की दो गाथाएँ दोनों जगह समान हैं। यथा- "सिद्धे णमंसिद्रूण य झाणुत्तमखविय दीहसंसारे ।
दह दह दो दो य जिणे दह दो अणुपेहणा वुच्छं॥१॥ मू. अ. ८ अद्ध वमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं ।
आसवसंवरणिज्जर धम्म बोहिं च चितेज्जो ॥२॥ मू. अ. ८
अर्थ-जिन्होंने उत्तम ध्यान के बल से दीर्घ संसार को नष्ट कर दिया है ऐसे सिद्धों को तथा दश, दश, दो और दो ऐसे १०+१०+२+२=२४ जिन-तीर्थंकरों को नमस्कार करके मैं दस, दो अर्थात् द्वादश अनुप्रेक्षाओं को कहूँगा। अधव, अशरण, एकत्त्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशचित्व. आसव.संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ये १२ अनप्रेक्षा के नाम हैं। वर्तमान में तत्त्वार्थसूत्र महाग्रन्थ के आधार से बारह अनुप्रेक्षाओं का यह क्रम प्रसिद्ध है-१. अनित्यअध्ध व, २. अशरण. ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर ६. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म। यहाँ मूलाचार में तृतीय 'संसार' अनुप्रेक्षा को पांचवें क्रम पर रक्खा है। दशवें क्रम की 'लोक' भावना को छठे क्रम पर लिया है। १२वीं अनुप्रेक्षा 'धर्म' को ११वें पर तथा ११वीं बोधि को १२वें पर लिया है। अथवा यों कहिए कि श्रीकुन्दकुन्ददेव पहले हुए हैं, उनके समय तक बारह अनुप्रेक्षाओं का यही क्रम होगा। उन्हीं के पट्टाधीश श्री उमास्वामी आचार्य बाद में हुए। उनके समय से क्रम बदल गया होगा। जो भी हो, 'द्वादशानुप्रेक्षा' ग्रन्थ में इसी क्रम से ही बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तार किया है। तथा मूलाचार में भी उसी क्रम से अलग-अलग अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है । इस प्रकरण से भी यह मूलाचार श्री कुन्दकुन्द कृत है यह बात पुष्ट होती है।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने चारित्रपाहुड में श्रावक के बारह व्रतों में जो क्रम लिया है, वही क्रम 'यतिप्रतिक्रमण' में श्री गौतमस्वामी द्वारा लिखित है । यथा
"तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि .....'तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविधअणत्थदंडादो वेरमणं, तदिए
गणव्वदे भोगोपभोगपरिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि । १. दर्शन पाहुउ, गाथा १७ ।
३२ / मूलाचार
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