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६ को रक्खा जावे तथा दूसरी तरफ मिथ्यात्वको, तो इन दोनोंमें इतना फरक है कि मेरु
पर्वत और सरसोंमें जितना हो अर्थात् हिंसादि पापोंसे भी बहुत भारी मिथ्यात्वपरि12 णामको कहा है ऐसा समझकर हे भव्यजीवो तुमारे प्राण भी जाते हों तो भी अगर तुम दुःखोसे डरते हो तो दु:खोंकी खानि ऐसे मिथ्यात्वको कभी सेवन मत करो।
देखो वह मरीचिका जीव त्रिदंडी मिथ्यामार्गके सेवनके फलसे एक बिंदु (बूंद) मात्र सुखके लिये समुद्रके समान महान दुःखोंको भोगता हुआ । इस लिये यदि तुम 11 उत्तम अविनाशी सुख चाहते हो तो सम्यग्दर्शनको ग्रहण करो और मिथ्यात्वको छोड़ो।
इस प्रकार श्री सकलकीर्तिदेव विरचित महावीरचरित्रमें पुरूरवादि
बहुतभवोंके कहनेवाला दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ २॥
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