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लक्षण तथा नौसौ सब श्रेष्ठ व्यंजनोंसे, विचित्र आभूषणोंसे और मालाओंसे इस विभुका स्वभावसे सुंदर दिव्य औदारिक शरीर अनुपम शोभता हुआ ।
बहुत कहने से क्या फायदा है जो कुछ तीन जगत् में शुभलक्षणरूप संपदा | प्रियवचन विवेकादि गुण हैं वे सब तीर्थकर पुण्यकर्मके उदयसे उस प्रभुके अपने आप अनेक सुखके कारण होते हुए । इत्यादि अन्य भी रमणीक गुणोंके अतिशय से शोभा - यमान और मनुष्य विद्याधर देवोंके स्वामियोंसे सेवित होता हुआ । वह महावीरकुमार धर्मकी सिद्धिके लिये मनवचनकायकी शुद्धिसे अतीचाररहित गृहस्थके बारह व्रतको नित्य पालता था । और शुभध्यानका हमेशा विचार करता रहता था । वह कुमार दिव्य क्रीडाओंसे हर्षित हुआ राजा और इंद्रकर दिये हुए अपने पुण्यसे उत्पन्न शुभरूप महान् भोगोंको भोगता हुआ ।
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जगत् स्वामी मंदरागी सन्मति वे महावीर प्रभु तीस वर्षकाल क्षणभरके समान सुखसे बिताते हुए । अथानंतर एक समय महावीर स्वामी काललब्धिसे ( अच्छी हो - नहारसे) प्रेरित हुए चारित्रमोह कर्मके क्षयोपशम से अपने आप ही अपने पहले के करोड़ों जन्मोंका संसारभ्रमण जानकर संसार शरीर व भोगोंसे परम वैराग्यको प्राप्त हुए । उसके बाद इस बुद्धिमान् प्रभुके चित्तमें ऐसा तर्क वितर्करूप विचार हुआ कि मोहरूप | महान् वैरीका नाश करनेवाला रत्नत्रय व तप पालना चाहिये ।
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