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॥७३॥
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म. वा. बहुत पुष्ट किया गया शरीर रोग आदि दुःखोंको देता है, इस लिये तपसे शोपण किया है। पु. भा.
8 जायगा तो परलोकमें स्वर्गमोक्षादिके उत्तम सुख मिलेंगे। यदि इस अपवित्र शरीरसे । केवलज्ञानादि पवित्रगुण सिद्ध होसकते हैं तो इस काममें अधिक विचारनेकी क्या पात
अ.११ 2 है कर ही डालना चाहिये । ऐसा जानकर निर्मल ज्ञानियोंको शरीरजन्यसुखकी इच्छा के 2 छोड़ कर अनित्य शरीरसे शीघ्र ही अविनाशी मोक्षकी सिद्धि करनी चाहिये । वुद्धिमानोंको दर्शन ज्ञान तपरूपी जलसे, अपवित्रदेहके द्वारा सव कर्ममल हटाकर अपना आत्मा पवित्र करना चाहिये।
आस्रव भावना-जिस रागवाले आत्मामें रागादिभावोंसे पुद्गलोंका समूह । कर्मरूप होकर आवे वह कर्मोंका आना ही आस्रव है, वह अनंत दुःखोंका देनेवाला है।
जैसे छिद्रवाला जहाज पानीके आवनेसे समुद्रमें डूब जाता है उसी तरह यह जीव भी कर्मोंके आनेसे अनंतसंसाररूपी. समुद्रमें गोते खाता है । उस आस्रवके कारण ये हैं2 खोटे मतोंसे उत्पन्न अनर्थोंका घर ऐसा पांचतरहका मिथ्यात्व, वारह प्रकारकी अवि- रति, पंद्रह प्रमाद, महापापोंकी खानि पच्चीस कपायें और पंद्रह योग ये दुष्ट कारण। । कठिनाईसे दूर किये जाते हैं । मोक्षके इच्छक जीवोंको चाहिये कि वे सम्यक्चारित्र और ॥७३॥ महानतपरूपी पैंने हथियारोंसे कर्मास्रवके कारणरूपी वैरियोंको मार डालें । जो प्राणी