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नहीं होता।
1. वी. घार उपद्रवोंसे थोडासा भी चलायमान नहीं होता । वे ही पुरुप इस लोकमें धन्य हैं: पु. भा. कि जिनका चित्त ध्यानमें ठहरा हुआ सैंकडों घोर उपद्रवोंसे थोडा भी विकाररूप
अ. १३ उसके बाद वही रुद्र निश्चलस्वरूपवाले महावीरको जानकर लज्जित हुआ इस तरह स्तुति करने लगा । हे देव इस संसारमें तुम ही बलवान् हौ जगतके गुरु ही वीरों में से मुख्य हो इसीसे महावीर हो । महाध्यानी जगतके नाथ सव परीपहोंके जीतनेवाले । वायुके समान संगरहित वीर, कुलपर्वतकी तरह निश्चल क्षमागुणसे पृथ्वीके समान,
| चतुर, समुद्रके समान गंभीर, निर्मल जलके समान प्रसन्नचित्त कर्मरूपी वनके लिये - अनिके समान हो । हे नाथ ! तुम ही तीन जगतमें वर्धमान ही श्रेष्ठबुद्धि होनेसे सन्मति
हो तुम ही महावली व परमात्मा हो । हे स्वामी निश्चलस्वरूपके धारण करनेवाले और प्रतिमायोगके रखनेवाले परमात्मास्वरूप आपके लिये हमेशा नमस्कार है।
इस प्रकार उस महावीर प्रभुकी वारंवार स्तुति करके तथा चरणकमलोंको नमस्कार कर अति महावीर ऐसा नाम रखकर मत्सरता छोड़ अपनी प्यारी स्त्री पार्वतीके साथ नाचकर आनंदमें भरा हुआ तथा चारित्रसे चलायमान वह रुद्र अपने स्थानको ८९॥ गया। देखो अचंभेकी बात है कि इस संसारमें दुर्जन भी महान पुरुपोंको योगजन्य