________________
पंद्रहवां अधिकार ॥१५॥
श्रीमते केवलज्ञानसाम्राज्यपदशालिने ।
नमो वृताय भव्यौधैर्धर्मतीर्थप्रवर्तिने ॥१॥ भावार्थ-केवलज्ञानके राज्यको करनेवाले भव्योंकर वेष्टित और धर्मतीर्थके|S प्रवर्तक ऐसे महावीर अहंतको नमस्कार है।
देवरूपी बादल जिनेंद्रके चारों तरफ सव पृथ्वीके ऊपर फूलोंकी वरसा करते थे। हा वह पुष्पवर्षा आकाशसे पड़ती हुई गंधकर खींचे हुए भौंरोंके गूंजनेसे जगतके स्वामी के ही
यशको ही मानों गा रही हो ऐसी मालूम होती थी । भगवान्के समीप अत्यंत दैदीप्यमान जगत्के शोकको दूर करनेसे सार्थक नामको रखनेवाला ऊँचा अशोकवृक्ष था । वह अशोकक्ष रत्नोंके विचित्र फूलोंसे मरकतमणिके पत्तोंसे और चंचल शाखाओंसे || ऐसा शोभायमान होता था मानों भव्योंको बुला ही रहा हो । महावीरमभुके शिरपर सफेद तीन छत्र ऐसे शोभते थे मानों भव्योंको तीन लोकके स्वामीपनाको मुचित कर सारहे हों । वे तीन छत्र दैदीप्यमान मोतियोंके लटकनेसे भूपित जिनका डंडा अनेक रत्नोंसे। जाजड़ा हुआ ऊंचा था और अपनी कांतिसे जिन्होंने चंद्रमाको जीत लिया है ऐसे थे ।