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म. वी. मुक्तिका अविनाशी फल अनंत सुख व आठ सम्यक्त्वादि महान गुणोंकी प्राप्ति है। पु. भा.
हे भव्यो ! जो संसाररूपी समुद्रमें गिरते हुए प्राणियोंको निकालकर तीन लोकके. .३४॥
शिखरके राज्यपर रक्खे वही धर्म है । वह श्रावक और मुनिधर्मके भेदसे दो प्रकारका है। और स्वर्गमोक्षके सुखका देनेवाला है । उनमेंसे श्रावकोंका धर्म तो सुगम है परंतु
योगियोंका धर्म महान कठिन है। MA अब श्रावकधर्मकी ग्यारह प्रतिमाओं (दों)को वर्णन करते हैं । जो जुआ
आदि सात व्यसनोंसे रहित है, आठ मूलगुणों सहित है और निर्मल सम्यग्दर्शनवाली है । ऐसी पहली दर्शनप्रतिमा कही जाती है । अव व्रतप्रतिमाको कहते हैं-पांच अणुव्रत शतीन गुणव्रत चार शिक्षाप्रत ये बारह व्रत हैं । जो मनवचनकाय कृत कारित अनुमोदनासे यत्नसे (सावधानीसे ) सजीवोंकी रक्षा की जावे वह पहला अहिंसा अणुव्रत है।
यह सब जीवोंकी रक्षा सव व्रतोंका मूल कारण है, गुणोंकी खानि है और धर्मका मूल । महावीज यही है ऐसा श्रीजिनेंद्रदेवने कहा है। EM जो झूठे निंदायोग्य वचनोंको त्यागकर हितकारी सारभूत धर्मकी खानि ऐसे हा सत्य (सांचे ) वचनोंका बोलना है वह दूसरा सत्य अणुव्रत है । सांच वचन बोलनेसे ॥१३४॥ जगत्में बुद्धिमानोंकी कीर्ति ( तारीफ़ ) होती है और सरस्वती कला विवेक चतुराई
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