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सन्जर
म. वी. हुए पुण्यके उदयसे वह सौधर्म स्वर्गमें महान ऋद्धिवाला गुणोंसहित और हमारी व्यंतर पु.भा.
शाजातिसे जुदा कल्पवासी देव हुआ है। ॥१४८॥ वहाँपर वह देव स्वर्गकी संपदाको पाकर जिनेंद्रकी पूजा करता हुआ देवियोंके से
साथ बहुत सुख भोग रहा है। ऐसा सुनकर बुद्धिमान् वह सूरवीर मित्र ऐसा मनमें विचारता हुआ कि ओहो देखो शीघ्र ही व्रतका ऐसा यह उत्तम फल मिला। जिस
तसे परलोकमें ऐसी संपदायें मिलती हैं उसके विना एक क्षण भी कभी नहीं विताना चाहिये । ऐसा विचारके वह सूरवीर भव्य शीघ्र ही समाधिगुप्त मुनिको नमस्कार कर लाखशीसे गृहस्थोंके व्रतं लेता हुआ। । अथानंतर वह खदिरसारका जीव देव वहां दो सागर तक महान् सुख भोगकर
आयुके अंतमें स्वर्गसे चयकें पुण्यके फलसे कुणिक राजा और श्रीमतीरानीका पुत्र है। ४||भव्योंकी श्रेणीमें मोक्ष जानेमें मुखिया तू श्रेणिक नामवाला उत्पन्न हुआ है।
उस कथाके सुननेसे जिनेंद्र देव धर्म व गुरु आदि पदार्थों में श्रद्धाको प्राप्त है। होके वह श्रेणिकराजा मुनिको वारंवार नमस्कार कर पूछता हुआ। all हे देव धर्मकार्यमें मेरी महान श्रद्धा है परंतु अब मेरे किस कारणसे थोड़ासा भी ॥१४८।
व्रत नहीं है । उसके बाद वे मुनि ऐसा वोले । हे बुद्धिमान ! पहले तूने अत्यंत मिथ्या
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