Book Title: Mahavira Purana
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddharak Karyalaya

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Page 308
________________ वी. द्वादशांगरूप समुद्रमें प्रवेश कर वचनोंका विस्तार छोड़के अर्थमात्रको ग्रहण कर जो पु. भा. रुचि होना उसे अर्थ.सम्यक्त्व कहते हैं । अंग व अंगवाह्य श्रुतका चितवन करनेसे जो ४९॥ रुचि होना वह अवगाढ दर्शन वारवें गुणस्थानवाले क्षीणकषायी योगीके होता है । अ. १९ , केवल ज्ञानसे जाने हुए सव पदार्थोंका श्रद्धान वह उत्तम परमावगाढ सम्यक्त्व है।। 5 . इस प्रकार असलमें जिनेंद्रकर कहा हुआ दस तरहका सम्यक्त्व है। उसके भी बहुत भेद हैं । हे राजा तू दर्शनविशुद्धि आदि अलग २ अथवा सब सोलह कारणोंसे श्री तीनजगत्के गुरुके पास जगतको आश्चर्यके करनेवाला तीर्थकर नामकर्म यहां बांधके परलोकमें पूर्वकर्मके फलसे रत्नप्रभा नामकी पहली नरककी पृथ्वीमें निश्चयसे १ जायगा । वहां पर उस कर्मका फल भोगकर आयुका अंत होनेपर वहांसे निकलकर है आगामी उत्सर्पिणी कालके चौथे कालकी आदिमें हे भव्य तू निश्चयसे महापद्म नामका ४ सज्जनोंका कल्याण करनेवाला धर्मतीर्थके प्रवर्तानेवाला पहला तीर्थकर होगा। है इसलिये तू निकट भव्य है अब संसारसे मत डर, क्योंक इस संसारमें: भटकते ? हुए पाणी पहले बहुत वार नरकोंमें गये हैं ॥ उस समय वह श्रेणिक राजा अपना रत्न-10 *प्रभा नरकमें जाना सुनकर दुःखी हुआ गणधरको नमस्कार कर फिर ऐसा पूछता हुआ। ॥१४॥ ६ हे भगवन् बड़े पुण्यका स्थान इस मेरे नगरमें मेरे सिवाय दूसरा भी कोई नरकमें जायगा,

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