Book Title: Mahavira Purana
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddharak Karyalaya

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Page 299
________________ न्छन्डन्न्छालालम्की दस दिव्य अतिशय चार घातिया कर्मरूपी वैरियोंके नाशसे अपने आप प्रगट होते हुए ॥ सब अर्थस्वरूप अर्थ मागधी भाषा अक्षररहित सव अंगसे निकलती हुई । वह विभुकी दिव्य ध्वनिरूप भाषा ( वाणी) सव पुरुषोंको आनंद करनेवाली सबके संदेहको मिटानेवाली दो प्रकारके धर्मको तथा सब पदार्थोंको कहनेवाली होती हुई। सदगुरुके प्रसादसे जातिविरोधी सर्प नौले वगैरः जीवोंका वैर मिटकर भाइयोंकी? तरह परम मित्रता हो जाती है सब ऋतुके फल पुष्पोंवाले सब वृक्ष हो जाते हैं वेमानों ? हाप्रभुके उत्तम तपका फल ही दिखा रहे हैं । धर्मके राजा उन प्रभुके सभामंडपकी पृथ्वी 2 (जमीन) सब तरफसे दिव्य रत्नोंवाली दर्पणके समान चमकती है । जगतके संबोधनेमें उद्यमी तीन जगत्के स्वामीके चलनेपर जीवोंको सुख देनेवाली मंद सुगंधी ठंडी पवन चलती है । प्रभुके जयजय शब्दकी ध्वनि आकाशमें महान् आनंदके करनेवाली होती है और शोकवाले जीवोंको हमेशा आनंद मिलता है । वायुकुमारके देव गुरुके सभामंडपसे आगे चार कोसतककी भूमि तृण कांटे वगैरःसे रहित कर देते हैं, स्तनितकुमार देव बिजलीकी चमकसे शोभायमान गंधोदककी (सुगंधी जलकी) वर्षा चारों | तरफ करते जाते हैं । दिव्य पीले पत्तोंवाले महान् प्रकाशसहित ऐसे रत्न जड़े सोनेके है. हासात २ कमल भगवान्के चरणोंके आगे २ नीचे भागमें देव बनाते हुए चले जाते NCCaeeकटक

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