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लन्डन्न्क
पांच परमेष्ठियोंका जप स्तोत्र तथा गुणोंके कहनेवाले अपनी निंदा करनेवाले दूसरोंकी निंदासे रहित कोमल-धर्मोपदेश देनेवाले इष्ट अर्हतपदादिके देनेवाले सत्य । मर्यादारूप-ऐसे वचन सज्जनोंके परमपुण्यको पैदा करते हैं। कायोत्सर्ग ( खड़ा रहना) आसन (बैठना) रूप, जिनेंद्रकी पूजामें उद्यमी गुरुकी सेवामें लीन पात्रको दान देने-IISI
वाला विकाररहित शुभ कार्योंका करनेवाला समताको प्राप्त-ऐसा शरीर बुद्धिमानोंके । Ja/ आश्वयकारी सव सुखोंके करनेवाले पुण्यको उत्पन्न करता है।
जो वस्तु अपनेको अनिष्ट ( खराव) लगती हो उसे दूसरोंके लिये भी न विचार करे उस भव्य जीवके हमेशा परम पुण्य होता है इसमें कुछ भी संदेह न समझना। इस || तरह वे तीर्थराज श्रीमहावीर प्रभु जीव समूहोंको व गणधरोंको संवेग होनेके लिये | 8 पुण्यके बहुत कारण कह कर उसके वाद पुण्यके अनेक तरहके फलोंको कहते हुए 12 र सुंदर अंगवाली प्यारी स्त्री, कामदेवके समान खूब सूरत पुत्र, मित्रके समान भाई,
सुखका देनेवाला कुटुंब, पहाड़के समान हाथी वगैरः, कविके वचन द्वारा भी नहीं कहा
जाय ऐसा सुख, महान् भोग उपभोग, सुंदर शरीर, शुभ वचन, करुणा सहित मन,INI I रूप लावण्यता इनको तथा अन्य भी दुष्प्राप्य संपदाओकों ये संसारी जीव पुण्यके
उदयसे पा सकते हैं।
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