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म.
१२३॥
तीन जगतमें होनेवाली दुर्लभ पुण्यके करनेवाली ऐसी लक्ष्मी धर्मात्माओं को पुण्यके उदयसे घरकी दासीके समान अपने आप वशमें हो जाती है । तीन जगतके स्वामियोंकर पूजा करने योग्य और भव्योंको मुक्तिका कारण ऐसा उत्कृष्ट सर्वज्ञका वैभव ( ठाठ ) पुण्यके उदयसे ही उत्पन्न होता है । सब देवोंकर पूजनीक सव भोगोंका स्थान सव शोभासे भूषित ऐसे इंद्रपदको बुद्धिमान पुरुष पुण्यके उदयसे ही पाते हैं ।
निधि और रत्नोंसे पूर्ण और सुखके करनेवाली ऐसी छह खंडकी लक्ष्मी पुण्यात्माओं को पुण्यके उदयसे मिलती है । दुनियांमें अथवा तीन जगतमें जो कुछ सार (उत्तम) वस्तु दुर्लभ है वह सव पुण्यके उदयसे उसी क्षणमें मिलती है । इसलिये हे प्राणियों यदि तुम सुख चाहते हो तो पूर्व कहा हुआ पुण्यका अनेक तरहका उत्तम फल जानकर प्रयत्नसे ( कोशिश से ) ऊंचा पुण्यकार्य करो। इसप्रकार पुण्यपाप सहित सात तत्वोंको कहकर वे जिनपति सव जीव समूहों को हेय ( त्यागने योग्य ) उपादेय ( ग्रहण योग्य ) वस्तुका व्याख्यान करते हुए ।
पु. भा.
अ. १७
भव्यजीवों को जीवसमूहों के बीचमें अर्हत आदि पांच परमेष्ठी उपादेय हैं जो कि सव भव्यों का हित चाहनेवाले हैं । निर्विकल्पपदपर रहनेवाले मुनियों को ज्ञानवान् ॥ १२३ ॥ सिद्धके समान गुणोंका समुद्र ऐसा अपना आत्मा ही उपादेय है अथवा व्यवहारहाष्टसं