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वी. भी अभव्यके हमेशा दीक्षित ( साधु ) होनेपर भी अहो पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है दूसरा नहीं।
जैसे कालासांप शक्कर सहित दूध पीनेपर भी जहरको नहीं छोड़ता उसी तरह हा अभव्य भी आगमरूपी अमृत पीनेपर भी मिथ्यात्वको नहीं छोड़ता । इस लिये वाकी है ६ तेरह गुणस्थान निकट भव्योंके ही होते हैं अभव्य और दूर भब्योंके कभी नहीं हो है। & सकते । इस प्रकार वे महावीर प्रभु पहले जीव तत्त्वका व्याख्यान आगमभाषा ( पारमा-है. हर्थिक भाषा) से करके फिर अध्यात्म भाषा ( व्यवहार ) से उसीका व्याख्यान करने में
लगे । बहिरात्मा अंतरात्मा परमात्मा- ये तीन प्रकारके जीव गुण और दोषकी अपेक्षा कहे गये हैं।
इनमेंसे जो जीव तत्त्व और अतत्वमें गुण अगुणमें सुगुरु कुगुरुमें धर्म और पापमार्ग में शुभ अशुभमें जिनसूत्र और कुशास्त्रोंमें देव कुदेवमें हेय उपादेयकी परीक्षामें
वचार शून्य है वही बहिरात्मा कहा जाता है। जो विना विचारे पदार्थोंको अपनी है ६ इच्छाके अनुसार ग्रहण करता है चाहें सत्य हों या असत्य कहे गये हों वही मूर्ख है हा ( अज्ञानी ) पहला वहिरात्मा है । जो शठ हालाहल जहरके समान घोर विषयजन्य है ॥११५॥ | हा सुखको उपादेय (ग्रहणंरूप ) बुद्धिसे सेवन करता है वही वहिरात्मा है।