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म. वी.
११९॥
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ज्ञानावरणकर्म जीवोंके मतिज्ञानादि श्रेष्ठ गुणोंको ढंक देते हैं जैसे देवकी मूर्तिको कपड़ा । दर्शनावरणकर्म चक्षुरादि दर्शनोंको रोक देते हैं जैसे अपने कार्यके लिये राजासे मिलनेको आये हुए पुरुषको दरवानियां । शहतसे लिपटी हुई तलवारके समान वेदनीयकर्म मनुष्यों को सरसोंके समान तो सुख देता है लेकिन पीछेसे मेरुपर्वत के समान महान दुःख देता है | अज्ञानी जीवोंको मोहनीयकर्म दर्शन ज्ञान विचार चारित्र आदि धर्मकार्यो में मदिरा के समान बावला बना देता है ।
आयुकर्म कायरूपी बंदीखानेसे जीवोंको जाने नहीं देता जैसे कैदीके हाथ पांओं में बंधी हुई सांकल । वहीं पर दुःख शोकादि सव आपदाओंको देता है । नामकर्म चतेरेके समान जीवों के विलाव सिंह हाथी मनुष्य देव आदि अनेक आकारोंको बनाता है । गोत्रकर्म कुंभारकी तरह लोकपूज्य उत्तम गोत्र में अथवा लोकनिंद्य नीच गोत्रमें जीवों को रख देता है । देखो अंतरायकर्म भंडारी ( खजांची ) की तरह पुरुषोंके दान लाभादि पांचोंमें हमेशा विघ्न करता है ।
पु. भा
अ. १
इत्यादि और भी बहुत से स्वभाव आठ कर्मोंके जानना । वे स्वभाव जीवोंके कर्मको आनेके कारण हैं । दर्शनावरणी ज्ञानावरणी वेदनीय अंतराय इन चार कमोंकी उत्कृष्ट हैं ॥११९ स्थिति तीस कोड़ा कोड़ी सागरकी हैं। मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा