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स्वरूप है वह व्यवहारकाल है । लोकाकाशके प्रदेशोंपर जो एक एक अणु रत्नोंकी राशिकी तरह जुदे २ क्रियारहित ठहरे हुए हैं उन असंख्याते कालाणुओंको जिनेन्द्र देवने निश्रय काल कहा है । धर्म अधर्म एक जीव और लोकाकाशके असंख्याते प्रदेश हैं । कालके प्रदेश नहीं है स्वयं एक प्रदेशी है इसलिये कालके विना पांच द्रव्य अस्ति - काय कहे जाते हैं और कालको मिलाकर वे ही छह द्रव्य जिनमतमें कहे जाते हैं ।
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जितने आकाशको एक पुद्गलपरमाणु रोकै उतनी जगहको एक प्रदेश कहते हैं । | जिस रागादिरूप मलिनपरिणामसे रागी जीवों के कर्म आते हैं वह परिणाम भावास्रव है | खोटे परिणामोंवाले जीवके जो कारणोंद्वारा पुद्गलोंका कर्मरूपसे आना. वह द्रव्यास्रव है । विस्तारसे तो आस्रव के मिथ्यात्व आदि कारण पहले अनुप्रेक्षाके प्रकरण में कहे हुए जान लेना । जिस रागद्वेपरूप आत्मा के परिणामसे कर्म बँधै वह परिणाम भावबंध है । भावबंध निमित्तसे जीव और कर्मका एकमेक मिलजाना वह द्रव्यवध है और वह बंध प्रकृति स्थिति अनुभाग तथा प्रदेश नामवाला चार तरहका है । वह बंध सब अनर्थीका करनेवाला और अशुभ है । प्रकृति और प्रदेश ये दो बंध योगसे तथा स्थिति और अनुभागबंध ये दुष्ट दो बंध कपायोंसे होते हैं ऐसा मुनीश्वरोंने कहा है 1
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