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म. वी. समय इंद्राणी प्रभुके सामने भक्तिवश होके पांच रत्नोंके बने हुए चूर्णसे विचित्र उत्तम पु. भा.
सांतिया अपने हाथसे लिखती हुई। . २. उसके बाद प्रसन्न हुए वे इंद्र तीर्थराजको प्रणाम कर कुछ नमकर भक्तिपूर्वक हाथ ||
। जोड़के मधुर वचनोंसे जिनेन्द्र के उत्कृष्ट अनंत गुणोंकी स्तुति उन गुणोंकी प्राप्तिके लिये है। 2 आरंभ करते हुए । हे देव ! तुम जगत्के नाथ हो तुम ही गुरुओंमें महान् गुरु ही है। । पूज्योंमें पूज्य तुम ही हौ, वंदनीकों से वंदने योग्य तुमही हौं । तुमही योगियोंमें महान ४ योगी हौ व्रतियोंमें महान् व्रती तुम ही हौ ध्यानियोंमें महाध्यानी तुमही हौ यतियोंमेंसे 8 महान् बुद्धिमान तुमही हो । तुमही ज्ञानियोंमें महान ज्ञानी हौ यतियोंमेंसे जितेंद्री तुमही है है। स्वामियोंके मध्यमें परम स्वामी तुमही हो । है जिनोंमें जिनोत्तम तुम ही हौ । ध्यान करके योग्य पदार्थोंमें सदा ध्येय तुम ही है। ? हौ स्तुति करने योग्योंमें स्तुत्य हे विभो ! आप ही हौ । दाताओंमें महान दाता तुम ही है| हौ गुणियों में महान् गुणी तुम ही हौ धर्मात्माओंमें परम धर्मात्मा तुम हो । हितकर्ताओंमें । परमहितकारी आप ही हौ । हे भगवन् तुम संसारसे डरे हुए प्राणियोंके रक्षक हौ । ॥१०॥ अपने और दूसरोंके कर्मोंके नाशक आप ही हो । शरणरहित जीवोंको शरण देनेवाले