________________
अ. वी.
१९७॥
| ऐसे शोभायमान होते थे मानों महामेरु पर्वत के ही शिखर हों । उन दरवाजों में कितने ही तो देवगंधर्व ( गानेवाले ) तीर्थंकर महावीर प्रभुके गुणोंको गाते थे कोई सुनते थे कोई | देव नांचते थे और कोई देव गुणोंको विचारते थे । उनमें से हरएक दरवाजेपर भृंगार कलश दर्पण आदि एक सौ आठ मंगल द्रव्य रक्खे हुए थे । हरएक दरवाजेपर रत्नमई | आभूषणोंकी कांतिसे आकाशको अनेक रंगका करनेवाले ऐसे सौ २ तोरण थे । उन तोरणों में लगे हुए आभूषण ऐसे मालूम होते थे मानों भगवानका शरीर स्वभावसे ही दैदीप्यमान है इस लिये वहां रहनेके लिये जगह न पाकर हरएक तोरणमें बंध रहे हों । उन दरवाजोंके समीप रक्खीं शंखादि नौनिंधियां ऐसीं मालूम पड़ती थीं मानों वीतरागी जिनेंद्र भगवान् ने उनका तिरस्कार ही किया हो इस लिये दरवाजे के बाहर रहकर | सेवाकर रहीं हो ।
उन दरवाजोंके भीतर बड़ा रस्ता था और उस रास्तेके दोनों तरफ ( वगलमें ) दो नाटकशालायें (ठेठर ) थीं। इसी तरह चारों दिशाओंके चारों दरवाजों में हरएकमें दो २ नाट्यशालायें थीं । वे नाट्यशालायें तीन मंजिल ऊंचीं ऐसीं मालूम होतीं थीं मानों भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शनादि तीनों स्वरूप ही मोक्षमार्ग है ऐसा कह रहीं हों उन नाटकशालाओं में वडे २ सोनेके बने हुए खंभे थे, और दीवाले निर्मल स्फटिक
भा
अ. १४
•
॥९७॥