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| . ये चार निकायके इंद्र देव और इंद्राणियोंसे शोभित निमेषरहित नेत्रवाळे परमा-III आनंदयुक्त हस्तकमलोंको जोड़ते हुए श्रीमहावीर प्रभुको देखनेकी उत्कंठावाले 'जय हो
नंदी (बढौ)' इत्यादि उत्तम शब्द वोलते हुए जल्दी चलनेवाले ऐसे हुए प्रभुके सभामंडपको देखते हुए । जो मंडप दूरसे ही चमक रहा था सब ऋद्धियोंसे पूर्ण था रत्नोंसे || l दिशाओंको प्रकाशरूप कर दिया था। ऐसे कुवेर देव आदि बड़े कारीगरसे बनाये गये।
जगत् गुरूके उस सभामंडपकी रचना कहनेको गणधरके सिवाय दूसरा कोई i: समर्थ नहीं है।
तो भी भव्यजीवोंको धर्मप्रीति आदिकी सिद्धिके लिये अपनी शक्तिसे समवस-II रणका कुछ वर्णन करता हूं। वह समवसरण ( मंडप) एक योजनके विस्तारमें था, गोल था, इंद्रनीलमणिरत्नोंका उसका पहलापीठ बहुत शोभा देता था । उसमें वीस हजार रत्नोंकी सीढियां थीं और पृथ्वीसे ढाईकोस ऊपर आकाशमें था। उसके किनारे चागेतरफ धुलिशाल नामका पहला परकोटा रत्नोंकी धृलिका था । वह कहीं तो का मंगेकी सुरतका था कहीं सोनेकी रंगतका कहीं अंजन सरीखा कालेरंगका था और कही||२| जातातेके समान हरे रंगवाला था। कहीं अनेक मिले हुए सोनेरत्नोंकी धूलिके तेजपुंजसे ||३||
आकाशमें इंद्रधनुपकी रंगतको करता हुआ शोभा देता था।