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म. वी.
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यह जीव अकेला ही तप रत्नत्रयादिसे अपने कर्मरूपी वैरियोंको नाश कर संसारसे अलग होके अनंत सुखवाली मोक्षको जाता है । इसप्रकार सब जगह अकेलापन समझकर हे ज्ञानवानो तुम भी मोक्षपदकी प्राप्तिके लिये एक ज्ञानस्वरूप अपने आत्माका ध्यान करो ।
अन्यत्व भावना - हे प्राणी तू अपनेको सब जीवोंसे जुदा समझ और जन्ममरण शरीर कर्म सुखादिसे भी निश्वयसे जुदा मान । इस तीन जगतमें कर्मके उदयसे | मातापिता भाई स्त्रीपुत्र वगैरः सव जीव अन्य ही होकर प्राप्त होते हैं असल में ये तेरे नहीं है। जहां साथ साथ रहनेवाला अंतरंग शरीर ही मरणके समय छोड़ देता है ऐसा | प्रत्यक्ष देखने में आता है तो बहिरंग घर स्त्रीवगैरः अपने कैसे हो सकते हैं । निश्चयसे पुद्गलकर्म कर उत्पन्न हुआ द्रव्य मन तथा अनेक संकल्प विकल्पोंसे भरा हुआ भाव 'मन और दोनों तरहके वचन ये भी आत्मासे जुदे हैं । कर्म और कर्मकि कार्य अनेक तरहके सुखदुःख जीवसे दूसरे स्वरूप ही हैं ।
जिन इंद्रियोंसे यह जीव पदार्थोंको जानता है वे इंद्रियां भी ज्ञानस्वरूप आत्मा से | भिन्न हैं और जड़ पुद्गलसे उत्पन्न हुई हैं। जो कि राग द्वेषादि परिणाम जीवमई मालूम होते हैं वे भी कमकर किये गये कर्मोंसे उत्पन्न हुए हैं जीवमयी नहीं है । इत्यादि
पु. भा.
अ. ११
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